गुरुवार, 12 अगस्त 2010

Uttrakhand Police

असंतोष से सुलग रही हैं पुलिस की निचली कतारें


सहसपुर के विधायक की पिटाई को लेकर राजनीतिक रुप से खूब हंगामा मचा और पूरे शहर में यह चर्चा आम रही कि इस कांड के पीछे का सूत्रधार कोई और है। लेकिन इस कांड के पीछे कौन था, यह सच शायद ही कभी सामने आ पाएगा।
सहसपुर के विधायक राजकुमार की पिटाई को लेकर सत्तापक्ष के विधायकों और लालबत्तीधारकों ने खूब हल्ला मचाया और इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री को इस कदर घेरा कि लगा जैसे एक खेमे विशेष के विधायक इस मामले पर बगावत कर देंगे। इन विधायकों और नेताओं का तर्क था कि जब राज्य में विधायक ही सुरक्षित नहीं है तब आम आदमी के प्रति पुलिस का रवैया क्या रहता होगा? दिलचस्प बात यह है कि विधायक की पिटाई को लेकर जितनी एकजुटता विधायकों ने दिखाई उतनी एकता एक बार भी इन्होने तब नहीं दिखाई जब बाहरी लोगों के लिए प्रदेश में रोजगार के दरवाजे खोल दिए गए। इस हल्ले से राज्य के नेताओं का चरित्र उजागर हो गया। मजेदार बात यह है कि इस किस्से को लोगों ने चटखारे लेकर सुना और आम लोगों इसे लेकर पुलिस के खिलाफ नाराजगी नहीं देखी गई अलबत्ता लोग हैरान जरुर थे कि जो पुलिस विक्रम और थ्री ह्वीलर वालों के हाथों पिटती रही हो उसने विधायक को कैसे पीट दिया?
घटनास्थल के आसपास के लोगों के जरिये जो खबरें छनकर आईं उसके अनुसार विधायक के ड्राइवर ने दारोगा के साथ बदतमीजी की और उसके बाद विधायक ने उसे गाली दी। जिससे नया-नया आया दारोगा भड़क गया। भाजपा के कुछ नेताओं के अनुसार विधायक की पिटाई उच्चस्तर से मिले निर्देशों के आधार पर अंजाम दी गई। अपनी कहानी को सच बताते हुए इन नेताओं का कहना है कि इसीलिए तत्कालीन एसएसपी को प्रमोशन दिया गया। उनका दावा है कि राजकुमार चूंकि भाजपा के एक खेमे विशेष से जुड़े हैं इसलिए उन्हे काबू में रखने के लिए इस कांड को अंजाम दिया गया।
यह घटना पुलिस के भीतर नेताओं के खिलाफ बढ़ रहे असंतोष की बानगी है। पुलिस के उच्चस्तरीय सूत्रों का कहना है कि प्रदेश में पुलिस के रोजमर्रा के कामों में हस्तक्षेप सभी सीमायें पार कर चुका है। उनका कहना है कि कालाढुंगी कांड ने अति राजनीतिक हस्तक्षेप से पैदा होने वाले खतरों पर चेताया था पर सरकार ने इस चेतावनी को अनसुना कर दिया। पुलिस के इन सूत्रों का दावा है कि पुलिस की निचली कतारों में हालात बेहद खराब हैं। बड़े नेताओं से लेकर छुटभये तक सिपाहियों, दारोगाओं और थानेदार स्तर तक के पुलिसवालों को आए दिन सार्वजनिक रुप से अपमानित करते रहते हैं। नेताओं की देखादेखी अब आम लोग भी पुलिसवालों को हड़का कर चल देते हैं। सूत्रों ने बताया कि कुछ विधायक तो पुलिसवालों से गालीगलौच से नीचे बात ही नहीं करते। उनका कहना है कि पुलिस के साथ बदसलूकी की घटनाओं का यह सिलसिला कोतवाल एमएस नेगी को हटाए जाने के बाद शुरु हुआ और अब यह रोग पूरे राज्य में फैल चुका है। उनका कहना है कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद तो राजनीतिक हस्तक्षेप महामारी का रुप ले चुका है। इस बीच यह भी चर्चा आम रही कि कुछ और विधायकों की भी पिटाई किए जाने के आसार हैं। बताया जाता है कि ऐसे पांच विधायक हैं जिनकी बदसलूकी से पुलिस परेशान है। इनमें दो विधायक देहरादून के हैं तो एक कुमाऊं का और दो गढ़वाल के हैं। सूत्रों का कहना है कि यदि जल्द ही पुलिस में निचले स्तर पर फैले असंतोष को दूर नहीं किया गया तो कभी भी कोई चिंगारी कालाढुंगी कांड से भी बड़े कांड को अंजाम दे सकती है।

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

सरकार ने किया लोकायुक्त का अपमान

उत्तराखंड सरकार किस अंहकार और दंभ के साथ काम कर रही है उसका अनुमान हाल ही में उपलोकायुक्त के पद पर की गई नियुक्ति से हो जाती है। उपलोकायुक्त के पद पर पुष्पा भट्ट की नियुक्ति के बारे में लोकायुक्त को सूचना तक देने का शिष्टाचार निभाने की जरुरत राज्य सरकार ने नहीं समझी। संवैधनिक पद पर बैठे व्यक्ति का इस तरह से अपमानित किए जाने की यह पहली घटना है। इस घटना से लोकायुक्त आहत हैं और उन्होने सरकार के रवैये पर अपनी नाराजगी जता दी है। संकेत मिले हैं कि लोकायुक्त इस नियुक्ति को खारिज कर सरकार को शर्मिंदा कर सकते हैं ।

किसी भी नए राज्य या राष्ट्र के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात यह होती है कि उस पर राज करने वाले राजनेता, अफसर और न्यायाधीश कितनी उदार और महान परंपरायें डालते हैं। यदि एक राष्ट्र के रुप में संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका समेत संवैधानिक संस्थाओं में जो अच्छी परंपरायें हमें आज नजर आती हैं वे इसलिए भी हैं कि आजादी के बाद केंद्र में सत्तारुढ़ होने वाले नेताओं में नेहरु समेत कई ऐसे उदार और लोकतांत्रिक और सचमुच के बड़े नेता मौजूद थे जिन्होने लोकतंत्र की बुनियाद को शानदार परंपराओं के आधार पर खड़ा करने की कोशिश की। भारत परंपराओं का आदर करने वाला देश है। हमारे समाज और देश में लोकतांत्रिक और सामाजिक शिष्टाचार की कई शानदार रस्मंे किसी लिखित आचार संहिता से नहीं बल्कि परंपराओं से निकली हैं।
एक अद्भुत, विचारवान संघर्ष की प्रसव पीड़ा से जनमे उत्तराखंड को लेकर यह उम्मीद की जाती थी कि वह एक पहाड़ी रंग के मिजाज की राजनीति देकर देश को रास्ता दिखायेगा। उत्तराखंड की विधानसभा और उसके राजनेता यह नहीं कह सकते कि उनकी राजनीति में उत्तराखंड के पहाड़ी समाज की कोई विशेषता है उल्टे वह इस नए नवेले प्रदेश को यूपी की राजनीति का घटिया और भ्रष्ट संस्करण बनाने में जरुर कामयाब रहे हैं। लेकिन नई और अच्छी लोकतांत्रिक परंपरायें शुरु करना तो दूर उत्तराखंड की सरकार लोकतांत्रिक और संवैधानिक मर्यादाओं को भी नष्ट-भ्रष्ट कर रही है। राजनीतिक हस्तक्षेप ने पुलिस की इतनी दुर्गति कर दी है कि उसकी हालत होमगार्डों से बदतर हो गई है। सरकार का हर विभाग तो राजनीतिक हस्तक्षेप से तो त्रस्त है ही पर अब हालत यहां तक पहुंच गई है कि लोकायुक्त जैसी संवैधानिक संस्था पर भी उसने हमला बोल दिया है। हाल ही में राज्य सरकार ने एक उपलोकायुक्त की नियुक्ति की। लेकिन नियुक्ति से पहले उसने लोकायुक्त से सलाह लेना तो दूर उसे सूचित करने का शिष्टाचार तक नहीं निभाया। इससे सरकार में बैठे लोगो और नौकरशाही का अहंकार और दंभ उजागर हो जाता है। यह न केवल एक संवैधानिक पद पर बैठे हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस का अपमान था बल्कि लोकायुक्त एवं उपलोकायुक्त एक्ट की धारा तीन बी का सीधा उल्लंघन है जिसमें कहा गया है कि सरकार को उपलोकायुक्त पद पर नियुक्ति करने से पूर्व लोकायुक्त से विचार विमर्श करना होगा। एक्ट के अनुसार ऐसा करना स्वैच्छिक नहीं बल्कि बाध्यकारी है। एक्ट से यह साफ है कि वह सरकार को राय मांगने की औपचारिकता भर निभाने की छूट नहीं देता। बल्कि इसमें कंसल्टेशन शब्द का इस्तेमाल किए जाने से जाहिर है कि लोकायुक्त की सहमति और सम्मति के बिना सरकार उपलोकायुक्त की नियुक्ति नहीं कर सकती। संविधान विशेषज्ञों के अनुसार लोकायुक्त की सलाह के बिना सरकार द्वारा की गई नियुक्ति अवैध है और लोकायुक्त इसे मानने को बाध्य नहीं हैं। साथ ही ऐसी नियुक्ति पर हस्ताक्षर करने से राज्यपाल भी इंकार कर सकते हैं। सूत्रों का दावा है कि अपने साथ किए गए अपमानजनक सुलूक से नाराज लोकायुक्त सरकार के प्रस्ताव को ठुकराने के मूड में हैं।
हैरानी की बात यह है कि अखबारों में उपलोकायुक्त पद पर नियुक्ति की सार्वजनिक घोषणा समाचार माध्यमों में किए जाने के तीन दिन बाद सरकार ने बैक डेट का एक पत्र भेजकर लोकायुक्त से राय मांगने की औपचारिकता पूरी करने की कोशिश की है। विधि विशेषज्ञ हैरत में है कि सरकार एक संवैधानिक पद पर बैठे पूर्व जस्टिस को रबर स्टैंप बनाने की हद तक कैसे चली गई। उनका मानना है कि सरकार के पास विधि विभाग से लेकर एडवोकेट जनरल तक कानून में माहिर लोगों की पूरी टीम है इसलिए यह अनजाने में उठाया गया कदम नहीं है बल्कि जानबूझकर किया गया है। क्योंकि नियुक्ति की फाइल जब चली होगी तभी उसके सारे प्रावधानों पर विचार कर लिया गया होगा। उनका कहना है कि लोकायुक्त एक्ट की धारा 16 में जानबूझकर किए गए अपमान के खिलाफ लोकायुक्त जिम्मेदार अफसर के खिलाफ मामला दर्ज कर सकते हैं। कानून को ठेंगे पर रखने की सरकार की यह हरकत तब और भी गंभीर हो जाती है जब उस पद पर जस्टिस घिल्डियाल जैसा सीधा- सच्चा और विवादों से दूर रहने वाला व्यक्ति बैठा हो। लोकायुक्त के अपमान की यह घटना संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट करने की शर्मनाक कोशिश है।



सोमवार, 9 अगस्त 2010

महंगाई पर नीति में नहीं नीयत में खोट




महंगाई पर संसद में जबरदस्त बहस और केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बयान के बावजूद मंहगाई की इस अंधी सुरंग से निकलने का कोई रास्ता निकलता नहीं दिख रहा। राजनीति की भूलभूलैया में यह मुद्दा बस बहस में ही समाप्त होकर रह गया। इस पूरी बहस से इतना तो पता चल ही गया कि महंगाई के मुद्दे पर राजनीतिक दलों की नीयत साफ नहीं है। सोनिया गांधी की गरीब फ्रैंडली मुद्रा के बावजूद इस समस्या की जड़ें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उस कुलीन आर्थिक राजनीतिक अवधारणा में है जो गरीब विरोधी और देश के सामाजिक आर्थिक ढंचे को तहस नहस कर देने वाली है।
 प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईमानदार और बेदाग प्रधनमंत्री के खिताब से नवाजे जाते रहे हैं। उनकी इस ईमानदारी के बावजूद कांग्रेस संसदीय चुनावों के लिए कई हजार करोड़ जुटाने में कामयाब रही। जाहिर है कि यह पैसा उस आम आदमी ने नहीं दिया जिसके साथ कांग्रेस हाथ होने की बात कही जा रही थी। यह पैसा उन लोगों ने दिया है जो इस देश को बाजार अर्थव्यवस्था के हिसाब से चलाने की आजादी चाहते हैं ताकि उनका मुनाफा कुलांचे भरता रहे। कहीं महंगाई का यह दौर उसी वर्ग के चुनावी कर्ज उतारने से तो नहीं पैदा हुआ। कांग्रेस के लोग इससे असहमत हो सकते हैं पर मंहगाई पर केंद्र जिस तरह से हाथ पर हाथ धरे हुए बैठा है उससे क्या इस आरोप का औचित्य साबित नहीं होता। इस पूरे प्रकरण से उन लोगों की आंखे खुल जानी चाहिए जो प्रधानमंत्री की ईमानदारी के कसीदे पढ़कर इसे कांग्रेस को वोट देने का सबसे बड़ा कारण बता रहे थे। साफ है कि व्यक्तिगत ईमानदारी का सवाल राजनीति में बहुत मायने नहीं रखता। भ्रष्टाचार के तंत्र को फलने-फूलने की आजादी देने वाला एक ईमानदार आदमी भी भ्रष्ट व्यवस्था के शिखर पर जमे रह सकता है। एक जनविरोध्ी तंत्र को भी अपनी साख बनाए रखने के लिए कुछ साफ सुथरा चेहरों की जरुरत होती है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के जिस आदमखोर पशु से हमारा पाला पड़ा है उसके सिद्धांतकारों में मनमोहन सिंह समेत कई ईमानदार और समर्पित हस्तियां हैं। लोकसभा में सुषमा स्वराज और राज्यसभा में अरुण जेटली ने इशारों- इशारों में इसे कहा भी। महंगाई के गणित के सूत्र मनमोहन के आर्थिक विकास दर वाले अर्थशास्त्र से भी निकलते हैं। लेकिन बीमारी सिर्फ इतनी ही नहीं है बल्कि इससे ज्यादा गंभीर और चिंता में डालने वाली है। विदेशी स्वामियों को खुश करने के लिए भारत सरकार ने उदारीकरण और भूमंडलीकरण के रास्ते को चुनने में वे मूलभूत सावधानियां भी नहीं बरतीं जो अमेरिका समेत सभी विकसित देशों ने बरती।
 यह ऐसा देश है जिसके पास बाजार का नियमन करने के लिए न कड़े उपभोक्ता कानून हैं और न ही कोई नियामक संस्था। लाइसेंस राज तो खत्म हो गया लेकिन बाजार का अंधेर राज कायम कर दिया गया। आज एक आम आदमी के पास अनुचित मूल्य या घटिया सामग्री का प्रतिकार करने के लिए कोई प्रभावी तंत्र नहीं है। आम उपभोक्ता बाजार में असहाय और दयनीय आदमी है जिसके पास व्यापारी की बात मानने और जेब से दाम चुकाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उसके पास यह जानने का न साधन है और न अधिकार कि वह जो खरीद रहा है उसका लागत मूल्य कितना है। वह समझ पाने में असमर्थ है कि एक ब्रांड की मुहर लगने मात्रा से किसी वस्तु का दाम कैसे 500 से 700 गुना तक बढ़ जाता है। उसके पास नकली सामान, प्रदूषित और खतरनाक खाद्य पदार्थों से बचने का कोई रास्ता नहीं है। उसका सामना हर रोज ऐसे सर्वशक्तिमान और स्वेच्छाचारी बाजार से होता है जो देश के कानूनों से ऊपर एक संविधानेतर और संप्रभु सत्ता है। स्पष्ट है कि भारत की सरकार और भारतीय राज्य की सहमति के बिना देश में ऐसी असंवैधानिक सत्ता नहीं चल सकती। भारतीय बाजार का कोई तर्कशास्त्र नहीं है। वहां जंगल राज है।उसमें एक ओर बिना मांग के ही दामों को कई गुना बढ़ाने वाला सट्टा बाजार है तो दूसरी ओर मुनाफाखोरी में माहिर देशी रुप से विकसित ऐसा आढ़त बाजार है जिसमें भाव अकारण ही कई गुना बढ़ा दिए जाते हैं। आम लोगों तक कभी यह जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती कि खाद्यान्न वायदा कारोबारियों ने सिर्फ सट्टबाजी कर साल भर में कितने हजार करोड़ रुपए बना लिए या आढ़तियों के तंत्र ने सिर्फ दामों की हेराफेरी कर साल भर में कितना मुनाफा कमाया। जाहिर है कि सरकार नहीं चाहती कि लोग कभी यह जान पायें कि अनाज का एक दाना पैदा किए बिना ही कुछ बिचौलिए हजारों करोड़ कैसे कमा रहे हैं। पंजाब कृषि विवि के एक अध्ययन के अनुसार पंजाब के आढ़तियों ने बिना कुछ किए धरे 1990 से 2007 के बीच लगभग 8000 करोड़ रुपए कमाए। यह है बिचौलियों का तंत्र! सरकार में अहम पदों पर बैठे लोग भी स्वीकार करते हैं कि खाद्य पदार्थों के दाम उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते 700 गुना तक बढ़ जाते हैं लेकिन इस नपुंसक आत्मस्वीकृति से लोगों को राहत नहीं मिल सकती। आखिर लागत और विक्रय मूल्य के बीच कोई लॉजिकल सम्बंध क्यों नहीं होना चाहिए? यह इसलिए नहीं होता चूंकि देश के राजनीतिक दलों, नगर से लेकर विधानसभाओं और संसद तक मौजूद उनके कारिंदों को इस काली कमाई का एक बड़ा हिस्सा जाता है। चुनावों और महंगाई के बीच के अवैध संबंध जब तब जाहिर होते रहते हैं। इसलिए यह कहना कि सरकार के पास महंगाई से निपटने की कोई नीति नहीं है, एक अर्द्धसत्य है। केंद्र सरकार के पास ऐसे दिमागों की कमी नहीं है जो इसका हल चुटकियों में निकाल सकते हैं पर वे ऐसा चाहते नहीं हैं। इसके पीछे मनमोहनोमिक्स तो है ही साथ में ऐसी सरकार भी है जिसने अपनी अंतरात्मा और ईमान बाजार के हाथों गिरवी रख दिया है। यही कारण है कि सरकार के गोदामों में गेहूं चावल सड़ रहा है और देश का दरिद्रनारायण भूखों मर रहा है। क्योंकि सरकार जानती है कि यदि वह गोदामों के गेहूं और चावल को रियायती दरों पर बाजार में लाई तो खाद्यान्न के दाम गिर जायेंगे और उसके खेवनहार बिचौलिए और वायदा कारोबारी कंगाल हो जायेंगे। इसलिए लाखों टन अनाज सड़ता