गुरुवार, 19 अगस्त 2010

Uttarakhand News
वाटरलू से कम थोड़े ही है श्रीनगर में अगला चुनाव

श्रीनगर से सत्यप्रसाद मैठाणी
प्रदेश के मुख्यमंत्री डा0रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा श्रीनगर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद से श्रीनगर विधानसभा सीट हॉट सीट बन गयी है। इस विधानसभा से चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ ही निशंक इस क्षेत्र को लेकर खासे गंभीर दिख रहे है। अपने एक साल के कार्यकाल मे मुख्यमंत्री क्षेत्र के पांच से अधिक दौरे कर चुके है। जिसमें उन्होने विकास योजनाओं की घोषणाओं की झड़ी लगा दी है। श्रीनगर में लड़ी जाने वाली यह लड़ाई सन् 1815 में बेल्जियम के वाटरलू में फ्रांस के सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट और सप्तम गठबंधन के बीच होने वाले ऐतिहासिक युद्ध से कम नही है। वाटरलू विश्व के ऐतिहासिक युद्धस्थलों में से एक रहा है। नेपोलियन जब दूसरी बार सत्ता में लौटा तो माहौल उसके खिलाफ था। फ्रांस के अध्ीनस्थ प्रशिया,रुस समेत कई राज्यों ने उसकी मुखालफत की और उसके खिलाफ एक गठबंधन बनाया और इसे इतिहास में ‘‘सेवंथ कोएलियेशन’’ के नाम से जाना गया। वेलिंगटन के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना और सप्त गठबंध्न की सेनाओं के साझा हमले से नेपोलियन हार गया। उसे ताउम्र सेंट हेलेना द्वीप में निर्वासन का दंड झेलना पड़ा। कहा जाता है कि अति आत्मविश्वास, प्रतिकूल मौसम और विरोधियों की एकजुटता के कारण नेपोलियन की हार हुई। बेहतर सैन्य साजोसामान से लैस, दुनिया की सबसे बेहतर और प्रोफेशनल सेना के बावजूद विश्व इतिहास के इस बेहतरीन सेनापति को इन तीन कारकों ने पराजय के लिए मजबूर कर दिया। श्रीनगर का भूगोल थोड़ा बहुत वाटरलू से मिलता है पर इसकी राजनीति बड़े से बड़े नेता को 295 साल पुराने वाटरलू की याद दिलाने की हैसियत रखती है। कोई चार सदी पहले जब यह कस्बा जब गढ़वाल के राजा की राजधनी था तब इसने राजनीति का पहला सबक सीखा था। हालांकि तब से आज तक अलकनंदा में कापफी पानी बह चुका है पर श्रीनगर की राजनीति अब भी राजनेताओं और राजनीतिक विश्लेषकों के लिए अबूझ और अगम्य बनी हुई है। यह लंबे समय से बु(िजीवियों का गढ़ बना हुआ है। गढ़वाल विवि आंदोलन समेत कई आंदोलनों का यह केंद्र रहा। राजनीति की चकरा देने वाली गलियों वाले श्रीनगर से यदि मुख्यमंत्राी ने चुनाव लड़ने का ऐलान किया है तो जाहिर है कि उन्होने उन सारे जोखिमों को टटोल लिया है जो सहां से चुनाव लड़ने के कारण पैदा हो सकते हैं। इसे राजनीति के बिसात पर उनके बढ़े हुए आत्मविश्वास का संकेत भी माना जाना चाहिए। ऐसा इसलिए भी है कि वह इस बिसात पर लगभग अजेय माने जाने वाले जनरल खंडूड़ी को चित कर चुके हैं। श्रीनगर विधानसभा क्षेत्र पर मुख्यमंत्री के फोकस का का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अपने एक साल के कार्यकाल में वे यहां पर खुले हाथों से विवेकाधीन कोष के आधा करोड़ से अधिक की धनराशि बांट चुके हैं। स्पर्श गंगा के बहाने वह यहां अपने नौजवान समर्थकों की एक पल्टन खड़ी करने में भी कामयाब रहे हैं। यही नहीं अपने एक साल के कार्यकाल के दौरान निशंक ने क्षेत्रीय जनता को यह विश्वास दिलाने का भरसक प्रयास किया है कि वह क्षेत्र के विकास को लेकर गंभीर हैं।साफतौर पर इसके पीछे श्रीनगर से चुनाव लड़ने का उनका इरादा झलकता है। मुख्यमंत्री के रुप में एक साल का कार्यकाल पूरा होने के मौके पर आयोजित प्रेस वार्ता में भी डा0 निशंक ने अपनी बड़ी उपलब्धियों में श्रीनगर में हुए विकास कार्यों को अधिक तवज्जो दी। गढ़वाल विवि को केंद्रीय विवि का दर्जा दिलाने के श्रेय पर वह अपना दावा ठोंक ही चुके हैं तो विवि शिक्षकों और कर्मियों को छठा वेतनमान देने पर तो उनका दावा है ही। हालांकि एनआईटी और श्रीनगर सौंदर्यीकरण,जीएनटीआई मैदान में स्टेडियम का निर्माण,मैरीन ड्राइव, जैसे निर्माणों को पूरा करना उनके लिए चुनौती हैं पर मुख्यमंत्री होने के नाते वह इन सबको अंजाम देने कूव्वत रखते हैं। उनके समर्थक उन्हे इस सीट से प्रतिनिधि देखना चाहते हैं। मुख्यमंत्री के श्रीनगर विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद श्रीनगर राजनीति में भी गरमाहट आ गई है। आलम यह है कि नगरपालिका अध्यक्ष कांग्रेस के होने के बावजूद भी उन्हें श्रीनगर सीट से चुनाव लड़ने का न्यौता दे चुके हैं। हालांकि भाजपा के संगठनात्मक चुनाव में खंडूड़ी लॉबी के हावी रही है। खंडूड़ी फैक्टर आगे चलकर निशंक के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि डा0निशंक विरोधियों को काबू में करने के वाले वशीकरण मंत्र के उस्ताद हैं। माना यह जा रहा है यदि वह श्रीनगर से चुनाव लडे़ तो शायद उन्हें अपने पुराने प्रतिद्वंदी गणेश गोदियाल से टक्कर लेनी पड़े। उनके पास मुख्यमंत्री का तमगे के साथ सरकार का बल भी होगा। ऐसे में श्रीनगर का समर उनके लिए केक वॉक भी हो सकता है। लेकिन विरोध्यिों की एकजुटता,सत्ताविरोध्ी रुझान और जनरल खेमे का असहयोग मिलकर इसे उनके लिए वाटरलू बना सकते हैं। इस वाटरलू में वह नेपोलियन साबित होंगे या पिफर विजयी वेलिंगटन सि( होंगे, यह पफैसला तो समय और राजनीति की पंडित श्रीनगर की जनता ही करेगी।

बुधवार, 18 अगस्त 2010

In the headlines

                    गजब के हरक ! हरक का गजब !!

  • वह शायद 1990 के आसपास की बात रही होगी तब आज के प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत गढ़वाल विश्वविद्यालय में शिक्षक थे लेकिन वह राजनीति को अपना पेशा बना चुके थे। उनके पास एक स्कूटर हुआ करता था। उस स्कूटर की ड्राइविंग सीट पर हरक सिंह होते थे और उनें पीछे की सीट पर आज के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक हुआ करते थे। लेकिन वक्त ने करवट बदली और उनके स्कूटरिया यार निशंक को भाजपा आलाकमान ने उत्तराखंड को चलाने का जिम्मा सौंप दिया। हरक सिंह के पास विधानसभा के भीतर कांग्रेस को चलाने का भार है। पहले तो यह बात भाजपा और कांग्रेस के भीतर खुसफुसाहट के रुप में कही जा रही थी अब जबकि हरक सिंह स्वीकार कर चुके हैं कि उनके और मुख्यमंत्री के बीच एक गुप्त संधि थी तब जाकर साफ हुआ कि मुख्यमंत्री के स्कूटर की पीछे की सीट पर कोई और नहीं विपक्ष के नेता बैठे हैं।स्कूटर वाली दोस्ती कायम है। इसे कहते हैं सच्ची और शोले वाली दोस्ती! सीटें बदल गईं पर दोस्ती नहीं बदली। प्रदेश हैरान है कि मुख्यमंत्री और विपक्ष के नेता एक ही स्कूटर पर सवार होकर फिल्म शोले के जय और वीरु की तरह गा रहे हैं, ‘‘ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे, तोड़गें दल पर तेरा साथ ना छोड़ेंगे।’’ कहते हैं कि मुख्यमंत्री आवास में एक कमरा वीरु के लिए आरक्षित है पर कहने वाले इसे कमरा नहीं कांग्रेस के लिए मकबरा भी कहते हैं।उत्तराखंड में फिल्माई जा रही इस शोले में जय और वीरु की दोस्ती का एक कारण यह भी है कि दोनों के अपने- अपने गब्बर भी हैं। एक को जनरल गब्बर लगते हैं तो दूसरे को हरीश रावत। गब्बरों को निपटाना है तो जय-वीरु की दोस्ती जरुरी है।
  • पौड़ी विधानसभा क्षेत्र से राजनीति शुरु करने वाले हरक सिंह रावत राजनीति के उस्ताद माने जाते। पहले मनोहर कांत ध्यानी फिर बीसी खंडूड़ी की उंगली थाम कर भाजपा की राजनीति में ऐसे जमे कि भाजपा के भीतर कईयों को उनसे खतरा महसूस होने लगा। बीजेपी की नई पीढ़ी के नेताओं में उन्होने सबको पीछे छोड़ दिया। उनकी महत्वाकांक्षाओं को भांप रहे नेताओं ने उन्हे भाजपा से बाहर करवा दिया।भाजपा से निकलकर उन्होने सतपाल महाराज की उंगली थामी और 1996 के लोकसभा चुनाव में उनकी सोशल इंजीनियरी और चुनावी तिकड़मों ने मिलकर भाजपा के जनरल को चित कर दिया। सतपाल महाराज को राजनीति में भी चेले चाहिए या फिर भक्त। वह खुद ही गढ़वाल में ठाकुर राजनीति के पोप होना चाहते थे इसलिए दूसरे पोप को कैसे बर्दाश्त करते? पर हरक सिंह राजनीति में महाराज का संप्रदाय बनाने तो नहीं आए थे। वह गढ़वाल विवि की शिक्षक राजनीति के गुरुकुल में प्रशिक्षित थे। गुरु को गुड़ बनाए रखने व खुद शक्कर बन जाने की टेक्नोलॉजी में दक्ष हरक सिंह सतपाल के कंधे पर सवार होकर राजनीति में लंबी छलांग मारने को आतुर थे। लिहाजा यह हिट जोड़ी भी टूट गई। हरक सिंह बसपा में गए और वहां भी उन्होने अपना लोहा मनवाया। एक दशक से ज्यादा समय तक राजनीति में घुमक्कड़ की तरह इधर उधर आते जाते रहे हरक जब कांग्रेस में पहुंचे तो वहां उन्होने डेरा जमा लिया। वहां उनकी धूनी ऐसी जमी कि वह कई दशकों से कांग्रेस की राजनीति कर रहे दिग्गजों को पछाड़ते हुए न0 2 हो गए।अदम्य महत्वाकांक्षा और दबंग राजनीति हरक की राजनीति की बुनियादी ताकत है। अपने समर्थकों के लिए किसी से भी भिड़ जाने की उनकी खासियत से ही उनके पास कुछ कर गुजरने वाले समर्थकों की पल्टन है। राजनीति की यह खासियत ही उनकी सीमा भी है।उनके विरोधी भी उतने ही कट्टर हैं जो किसी भी कीमत पर उन्हे आगे नहीं आने देना चाहते। इसीलिए विवादों से उनका पुराना नाता रहा है। पटवारी भर्ती कांड, जेनी कांड समेत कई विवादों से घिरे हरक अब भूमि घोटाले में घिर गए हैं। इतना तय है कि इससे वह बेदाग बाहर नहीं आ सकते। पर इस घपले के उछाले जाने से नाराज उनके करीबी हरीश रावत खेमे पर उंगली उठा रहे हैं। उनका कहना है कि मुख्यमंत्री के सबसे तगड़े दावेदार माने जा रहे हरक सिंह रावत को दौड़ से बाहर करने के लिए इसे उछाला गया है।यह घपला तो निर्णायक साबित हो ही सकता है पर हरक ने निशंक के साथ संधि होने की बात स्वीकार कर अपने पैर में खुद ही कुल्हाड़ी मार ली है।मुख्यमंत्री को लेकर उनके रवैये पर पहले ही कांग्रेस में सवाल उठते रहे हैं।इससे वह और भी ज्यादा घिर गए हैं। पार्टी में पहले ही उन पर सवाल उठता रहा है कि वह विधानसभा के भीतर नहीं बल्कि बाहर ज्यादा एक्टिव रहते हैं।अपने ही बयान से मुश्किल में फंसे हरक की घेराबंदी कांग्रेस में होने लगी है।उनके बयान की प्रति आलाकमान तक पहुंचाई जा चुकी है।