शनिवार, 31 दिसंबर 2011

Changing political style of Gen Khanduri, C.M. Uttrakhand


Gen Khanduri, C.M. Uttrakhand

reinvented himself


In The Memory of Dev Anand

Dev Anand
A Tribute from Janpaksh Today



Dedicated to Dev Anand ,the Legend


Janpaksh Today interviewed legendary actor Dev Anand just before the release of colour version of his film "HumDono"

The Politics of Indian Media


                          देश को भीड़तंत्र की ओर हांकता मीडिया
                                       
                                                                   राजेन टोडरिया

सन् 2011 की विदाई के साथ भारतीय लोकतंत्र पर भीड़तंत्र के हावी होने की आशंकायें भी गहरा रही हैं। 2011 में भारतीय कारपोरेट मीडिया इस देश को एक भीड़ और भेड़ तंत्र में बदलने की लगातार कोशिशें करता रहा है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की गंभीरता और उसके बुनियादी सवालों को व्यक्तिपूजा में बदलने का जो अपराध भारतीय मीडिया ने किया है वह अक्षम्य है। कारपोरेट मीडिया ने अन्ना के आंदोलन की आड़ में भारत की सरकार, संसद और न्यायपालिका को अपनी कठपुतली बनाने की कोशिशें तेज कर दी हैं। लोकतंत्र की ताकत जनता में निहित होती है। लोकतंत्र अपनी विभिन्न संस्थाओं के जरिये जनाकांक्षाओं को संबोधित करता है और संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका में होने वाली बहसों, विमर्शों के जरिये लोकतंत्र खुद को जनता की इच्छाओं के अनुरुप ढ़ालता रहता है। यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है। लेकिन कारपोरेट मीडिया जो अपने विज्ञापनदाताओं के अलावा किसी और के प्रति जवाबदेह नहीं है उसने अन्ना आंदोलन का जो हाइप क्रिएट किया उससे जाहिर है कि इसके पीछे कारपोरेट मीडिया के अपने स्वार्थ हैं। आज तक मीडिया ने कभी किसी कुठ हजार लोगों के आंदोलन को इतना नहीं चढ़ाया। पत्रकारीय तटस्थता और पेशेवर ईमानदारी को छोड़कर कारपोरेट मीडिया ने मीडिया के दलीयकरण की शुरुआत कर दी है। मीडिया के भ्रष्टाचार विरोधी ये तेवर क्या असली हैं? या फिर इसके पीछे कुछ अन्य कारण हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि इसके पीछे विदेशी फंडिंग एजेंसियों का मीडिया मैनेजमेंट तो काम नहीं कर रहा है? यह शक इसलिए भी होता है कि हिंदुस्तान टाईम्स ग्रुप की मालिक शोभना भरतिया ने राज्यसभा में लोकपाल के तहत ट्रस्टों और एनजीओ को लाने के विरोध में बोलीं। क्या शोभना भरतिया लोक कल्याण के लिए इसकी वकालत कर रही थीं या फिर यह भी कारपोरेट मीडिया का हिडन एजेंडा है। अभी हाल ही में देश के एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनल ने डाॅक्यूमेंटरी की आड़ में पेड न्यूज प्रसारित करने का प्रयोग शुरु किया। इनमें से दो वृत्त चित्र साफ तौर पर एक विदेशी फंडिंग एजेंसी द्वारा प्रयायोजित लग रहे थे। आश्चर्य की बात यह है कि इन वृत्त चित्रों को प्रसारित किए जाते समय यह नहीं बताया जाता कि इनके लिए धन मुहैया कराने वाले कौन हैं?
ट्रस्टों और एनजीओ को लोकपाल के तहत लाने और रिटेल में विदेशी भागीदारी पर ऐन समय पलट जाने के सरकारी फैसले से कारपोरेट मीडिया सरकार से सख्त नाराज है। उसे डर है कि देर सवेर मीडिया को भी लोकपाल के तहत लाया जा सकता है। क्योंकि संसद में सांसदों का बहुमत भी मीडिया के खिलाफ होता जा रहा है। सरकार और राजनीतिक दलों को बैकफुट पर लाने के लिए कारपोरेट मीडिया दो तरफा रणनीति पर चल रहा है। एक तो उसने साफ तौर भाजपा को खबरों में ज्यादा स्पेस और तवज्जो देना शुरु कर दिया है इससे लगभग सभी न्यूज चैनलों पर भगवा झंडा लहराने लगा है। दूसरी ओर कारपोरेट को लोकपाल के तहत लाने की मांेग कर रहे कम्युनिस्टों को पटाना शुरु कर दिया हैंे। आजकल टीवी चैनलों पर जो कम्युनिस्ट नेता अक्सर नजर आ रहे हैं दरअसल यह माकपा के नेताओं को पटाने की रणनीति का ही हिस्सा है। इसीलिए कम्युनिस्टों ने कारपोरेट को लोकपाल के तहत लाए जाने की मांग केवल औपचारिकता निभाने के लिए ही की। इस रणनीति का दूसरा हिस्सा राजनीतिक नेताओं के खिलाफ नफरत के सुनियोजित अभियान को चलाना है। कारपोरेट मीडिया के निशाने पर अधिकांश जो नेता हैं वे अधिकांश दलित और पिछड़े हैं। क्या इसे सिर्फ संयोग माना जाना चाहिए ? यह जरुर है कि भ्रष्टाचार के अधिकांश मामलों में वे ही फंसे पर क्या सवर्ण नेता भ्रष्ट नहीं हैं? दरअसल यह एक साजिश का हिस्सा है। कुछ विदेशी एजेंसियां जो नार्वे और स्वीडन से आॅपरेट कर रही है वे भारत में राजनीतिक असंतोष को फाइनेंस कर रही हैं। इसके पुष्ट प्रमाण हैं। भारत सरकार यदि विदेश आने वाले अरबों रुपए के फंड और उसके खर्चे का आॅडिट करा दे तो इस अंतराष्ट्रीय साजिश का पर्दाफाश हो जाएगा। इन फंडिंग एजेंसियों का टारगेट भारत का मिडिल क्लास है जो कि भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। यह संयोग नहीं है कि अन्ना आंदोलन को चला रहे एनजीओज का टारगेट आॅडियंस भी यही मध्यवर्ग है।
दलितों,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ खड़े हो जाने से देश में मीडिया का रुख 1991 के राममंदिर आंदोलन और आरक्षण विरोधी आंदोलन जैसा सवर्णवादी और सांप्रदायिक होता जा रहा है। यह अजूबा भी नहीं है। क्योंकि कारपोरेट मीडिया की आंतरिक सामाजिक-राजनीतिक बुनावट दरअसल दलित,अल्पसंख्यक और पिछड़ा विरोधी ही रही है। मीडिया घरानों पर भी सवर्णों का ही सनातन कब्जा रहा है। अन्ना आंदोलन की आड़ में मीडिया जिस तरह से देश को भीड़ और भेड़तंत्र बनाने की ओर धकेलने में कामयाब हो गया था उसने कारपोरेट मीडिया के हौसले बुलंद कर दिए थे। उसे लगने लगा था कि वह इस देश में किसी भी सरकार को अपनी उंगलियों पर नचा सकता है। लेकिन भारतीय जनमानस में गजब की समझदारी है। मबंई में अन्ना आंदोलन के पक्ष में जबरदस्त प्रचार और कई इिन से टीवी स्टॅडियो में चलने वाली बहसों के जरिये कारपोरेट मीडिया ने अन्ना के पक्ष में हवा बनाने के लिए एक बार फिर पेशेवर पत्रकारिता की सारी मर्यादायें तोड़ दीं लेकिन चैबीसों घंटे चलने वाले चैनलों और अखबारों के अभूतपूर्व प्रचार, भीड़ के लिए मुफ्त में बस चलाने और खाना खिलाने के घटिया राजनीतिक हथकंडों के बावजूद जब भीड़ नहीं जुटी तो न्यूज चैनलों और अखबारों ेके लिए मुंह छुपाना मुश्किल हो गया। मीडिया ने इसका ठीकरा टीम अन्ना, मौसम और मुंबई के सर पर फोड़ दिया। लेकिन लाइव कवरेज और टीवी और अखबारों में फोटो देखने का लालच पैदा कर जो गुब्बारा न्यूज चैनलों ने फुलाया था वह मुबंई और दिल्ली में फूट गया। भारतीय जनता ने एक बार फिर बताया कि गांधी को न्यूज चैनलों के न्यूज रुम में नहीं पैदा किया जा सकता और न ही वे इतने काबिल हैं कि अपनी मर्जी से गांधी गढ़ सकें। जनता ने साफ संदेश दे दिया है कि कारपोरेट मीडिया को देश में आंदोलन पैदा करने और उसे नेपथ्य से संचालित करने की ताकत नहीं दी जा सकती। एक तरह से उसने देश के भाग्य विधाता बनने के दंभ में जी रहे भारतीय मीडिया मुगलों के अहंकार को उसकी औकात बता दी है। भारतीय जनता अखबारों और न्यूज चैनलों के चरित्र को भलीभांति पहचानने लगी है। वह हर रोज मीडिया के हाथों अपने आस पास असली खबरों का कत्ल होते देखती रहती है उससे उसने मीडिया के बारे में एक खास छवि बना ली है। इतना तय है कि यह छवि जनपक्षीय तो बिल्कुल नहीं है।
सन् 2011 में कारपोरैट मीडिया जन आंदोलनों के लिए एक बड़े खतरे के रुप में सामने आया है। मीडिया एक अतार्किक और तत्काल नतीजा हासिल करने पर आमादा भीड़ पैदा करता है जिसका दिमाग न्यूज रुम में शातिर ढ़ंग से लिखी गई एक पटकथा से संचालित होता है। ऐसी उन्मादी भीड़ दूध में आए उबाल की तरह होती है पर वह एक खास समय पर अनिष्ट करने में सक्षम होती हैं। लोकतंत्र राजनीति तर्क और सत्ता का विभक्तिीकरण की बुनियाद पर टिकी व्यवस्था है। कारपोरेट मीडिया यदि इसमें घुसपैठ कर हर स्तंभ को अपने हितों के आधार पर संचालित करने लगेगा तो यह आसुरी ताकत एक दिन देश में अराजकता पैदा कर देगी। जनता में जब हर स्तंभ के प्रति गुस्सा और अविश्वास हो जाएगा तब तानाशाह ही आएगा।