अपनी फक्कड़ी में बाबा नागार्जुन और जनांदोलनों में मगन होकर गाने की शैली में तेलुगू के क्रांतिकारी कवि गदर की याद दिलाने वाले महान जनकवियों की परंपरा के कवि गिरीश तिवारी गिरदा नहीं रहे। पहले 1977 का वनांदोलन और फिर 1984 का ‘‘नशा नहीं रोजगार दो’’ में गीत गर्जना करने वाले गिरदा उत्तराखंड आंदोलन के ऐसे स्वर रहे हैं जिनकी कविताओं में वह सपना बोलता था जिसके लिए पहाड़ की जनता को अलग राज्य चाहिए था। चार दशकों तक उत्तराखंड की पीड़ा और संघर्षों को आवाज देते रहे गिरदा का जाना हमारे वक्त की सबसे बड़ी त्रासदी है।
अभी पिछली 15 अगस्त को वह मिले थे। देहरादून के नगरनिगम के सभागार में। जब वह अपनी कविता ‘‘हो दिगो लाली’’ सुना रहे थे तो उनके हर बंध पर तालियां बज रही थीं। ऐसा लगता था कि जैसे लोग अपने इस महान जनकवि को उसके योगदान के लिए दिल की गहराईयों से श्रद्धांजलि दे रहे हों। उस दिन गिरदा अपने उस रंग में नही थे जिसके लिए वह जाने जाते हैं। लेकिन एक दिलचस्प वाकया भी उस समय हुआ जिस पर शायद ही लोगों का ध्यान गया हो। मुख्यमंत्री कवियों को शॉल भेंटकर सम्मानित कर रहे थे। इस सम्मान से दोहरे हुए जा रहे कई कवि मुख्यमंत्री के सामने गर्दनें लंबी किए बिछे जा रहे थे। पिछले कुछ सालों से झुके हुए कंधें और दोहरी हो रही कमर के साथ नजर आने वाले गिरदा मुख्यमंत्री के सामने तनकर खड़े थे और उन्होने शॉल पहनने के लिए अपनी गर्दन तक नहीं झुकाई। यह एक फक्कड़ कवि का सत्ता के सामने खड़े होने का अंदाज था। उस रात को नैनीताल लौटने से पहले थोड़ा सा समय उनके साथ बिताया। वह जब भी कवि सम्मेलनों में आते तो हमारी तीन-तीन बजे रात तक महफिलें चलती। हम बस मंत्रमुग्ध होकर उन्हे सुनते रहते और वह अपने बिंबों के अर्थ खोलकर बताते जाते। पर उस दिन जब मैने उन्हे पूछा कि वह किस होटल में ठहरे हैं तो उन्होने बताया कि वह फौरन ही वापस लौट रहे हैं और फिर आयेंगे तब जमकर बैठेंगे। लेकिन पता नहीं क्यों पहली बार मुझे लगा कि अब उनसे मुलाकात नहीं होगी। शनिवार को हल्द्वानी से ओपी पांडेय ने बताया कि गिरदा अस्पताल में भरती हैं और उनकी हालत नाजुक है। शाम को ओपी से फिर बात हुई तो उसने बताया कि ऑपरेशन सफल हुआ है। मुझे लगा कि मैं बेकार में ही आशंकित हो रहा था। गिरदा ठीक हो जायेंगे। फिर रविवार की सुबह राजेंद्र कोटियाल का फोन आया कि गिरदा नहीं रहे। मैं अवाक रह गया। गिरदा ऐसे जायेंगे कभी सोचा भी नहीं था। पिछली गर्मियों मंगलेश डबराल समेत कई साथियों ने उनसे अपनी कवितायें और गीत रिकॉर्ड कराने को कहा पर सदा की तरह वह टाल गए।
10 सितंबर 1943 में अल्मोड़ा के करीब ज्योली गांव में जनमे गिरदा ने भारत सरकार के गीत और नाट्य प्रभाग से संस्कृतिकर्मी की अपनी यात्रा शुरु की। लेकिन वह कभी उसकी सीमाओं में बंधे सरकारी रंगकर्मी नहीं रहे। चिपको आंदोलन के दौर में जब वह दोनों हाथ लय और तरंग के साथ लोगों का आह्वान करने की मुद्रा में ‘‘ आज हिमाल तुमन कै धत्यूं छो ’’ गाते थे तो लगता था जैसे साक्षात हिमालय अपने पहाड़ी बेटे-बेटियों को आवाज दे रहा हो। जिन लोगों ने उस दौर में गिरदा को गाते हुए देखा-सुना हो वे जान सकते हैं कि किस तरह से एक जनकवि जुलूसों को ही नहीं बल्कि किनारे खड़े उन तटस्थ लोगों को भी मंत्रामुग्ध करता है। 1984 के शराब विरोधी आंदोलन के दौर में गिरदा फैज की विश्वविजयी गजल,‘‘ दरबार ए वतन में’’ की ‘जब तख्त गिराए जायेंगे/ जब ताज उछाले जायेंगे’’ पंक्तियां गाते थे तो महसूस होता था कि वाकई ताजो-तख्त उछाले जा रहे हों। यह गिरदा की ताकत थी कि वह सड़क पर चलते हुए भी आपको क्रांति की अपनी दुनिया में ले जा सकते थे। आप महसूस कर सकते थे कि आपके भीतर भी बदलाव की अनगिनत बेचैन लहरें ठाठें मार रही हैं जिन्हे जगाकर गिरदा आपको सराबोर कर डालते थे। आज भी जब वह पहाड़ की एक शाम का चित्र उतारती अपनी कविता, ‘‘ ओ दिगो लाली’’ गाते हैं तो पहाड़ का गांव जैसे एक काव्य फिल्म की तरह सामने चलने लगता है। उनकी कविता क्रांति के रूपहले संसार में भी ले जाती है तो लोकजीवन में भी। वह लोकजीवन के अद्भुत बिंबों के कवि हैं। पर गिरदा सिर्फ कंठ और शब्द के कवि नहीं थे। कविता उनकी पूरी देह में बोलती थी। कविता का हर शब्द उन्हे झंकृत करता और गाते हुए वह उसमें डूबकर विदेह हो जाते। ठीक उसी तरह जैसे जागर सुनते हुए एक अदना सा आदमी पुराकथाओं के देवता में बदल जाता है। वह क्रांति के कवि थे और जीवन भर उसी की साधना करते रहे।
उत्तराखंड की सख्त, खुरदरी और उबड़-खाबड़ जमीन कविता के लिए सदा ही उर्वरा रही है। हो सकता है कि कठिन जीवन कविताओं के लिए ज्यादा मुफीद हो आप चाहें तो देवभूमि होने के कारण इसे दिव्य संयोग भी कह सकते हैं। पहले कविताओं की यह प्रतिभा उन बाजगियों के हाथ में थी जिन्हे हिंदू सवर्णवाद ने दलित बना दिया। वे दलित ही दरअसल उत्तराखंड की काव्य परंपरा के असली पुरखे हैं। देवताओं के जागर से लेकर पांडवों के वृतांतों तक कविता और संस्कृति जो भी धरोहर है वह उन्ही अछूत बना दिए गए महान कवियों और संगीतकारों के मुख से निकली है। उत्तराखंड में साहित्य और संगीत के ब्रह्मा वही रहे हैं। प्रमुख घटनाओं और त्रासदियों पर गीत रचनेे की वाचिक परंपरा को भी उन्होने ही आगे बढ़ाया। उन्हे सवर्णों ने भले ही बेड़ा, बद्दी पुकार कर हेय दृष्टि से देखा हो पर वे अद्भुत कवि और गीतकार थे जो किसी भी घटना पर गीत रच सकते थे। उत्तराखंड में आंदोलनों का जितना लंबा इतिहास रहा है उतना ही लंबा इतिहास आंदोलन की कविताओं और गीतों का भी है। आजादी के दौर में ब्रिटिश विरोध की कविताओं को लेकर गौर्दा ने जनकवियों की आधुनिक परंपरा का श्रीगणेश किया पहली बार इसे वामपंथी तेवर देते हुए गुणानंद पथिक ने गले पर हारमोनियम डालकर कविता को जनता के आंदोलनकारी हथियार में बदल दिया। उनकी इस परंपरा को सर्वोदयी मद्यनिषेध, पशुबलि विरोधी आंदोलनों और चिपको आंदोलन में लोककवि घनश्याम सैलानी ने आगे बढ़ाया।गिरदा जनकवियों की इसी पांत के कवि थे। यह काव्य धारा भी उसी गंगोत्री से निकली जिससे गौर्दा, गुणानंद पथिक और घनश्याम सैलानी की धारायें निकली हैं।उत्तराखंड में जब-जब बदलाव का सपना देखने वाले आम लोग आंदोलन करेंगे गिरदा उनकी आत्माओं में जाकर बोलेंगे। गिरदा जिंदा रहेंगे। उनके शब्दों में,‘‘ उस दिन हम नहीं होंगे साथी/पर वह दिन हमारे लिए होगा।’’