गुरुवार, 5 अगस्त 2010

जनरल का अगला कदम ? सरेंडर या जंग!

पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री बीसी खंडूड़ी को जब आलाकमान ने तमिलनाडु का प्रभार दिया तब भाजपा के भीतर ही उनका मजाक उड़ाते हुए कहा गया कि राजगद्दी तो दृर उन्हे कोश्यारी की तरह उत्तराखंड की राजनीति से विदा कर सुदूर दक्षिण में वनवास पर भेज दिया गया है। आलाकमान के इस कदम से आम लोगों के बीच भी यही संदेश गया है कि भाजपा नेतृत्व अब जनरल को ठिकाने लगाकर प्रदेश की सत्ता की बागडोर पूरी तरह से मुख्यमंत्री निशंक के हाथ में ही रखना चाहता है। इसे साफ तौर पर जनरल को उत्तराखंड से बाहर करने की भाजपा की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। भाजपा के ताजा कदम के बाद जनरल के पास विकल्प लगातार कम हो रहे हैं और उनके पास फैसला करने का वक्त भी कम होता जा रहा है। उनके लिए ‘‘करो या मरो’’ की घड़ी अब ज्यादा दूर नहीं रह गई है। एनडीए के सबसे काबिल, चमकदार और प्रशंसित मंत्री रहे भुवनचंद्र खंडूड़ी को जब आलाकमान ने तमिलनाडु का प्रभार सौंपा तो इसे पूरे देश में आश्चर्य के साथ देखा गया। क्योंकि इस राज्य में एक तो भाजपा का अस्तित्व बस नाममात्र का है और जनरल के लिए इस राज्य में करने के लिए कुछ नहीं है। आलाकमान के इस फैसले को मुख्यमंत्री खेमे की विजय करार दिया गया और जाहिर है कि इस पर जश्न भी मनाया गया होगा। इस खेमे के कुछ महारथियों ने मजाक उड़ाते हुए कहा कि जनरल के हाल उन चौबेजी जैसे हो गए हैं जो छब्बे बनने के चक्कर में दुब्बे होकर रह गए। जनरल को तमिलनाडु और कोश्यारी को झारखंड भेजे जाने के फैसलों को मुख्यमंत्री के मैनेजमेंट का कमाल के रुप में खूब प्रचारित किया गया। राजनीति के पंडित इसे मनी मैनेजमेंट का करिश्मा करार दे रहे है। बहरहाल आलाकमान के इस फैसले से जनरल के उन समर्थकों को झटका लगा हैै जो पनबिजली और स्टर्डिया घोटाले मीडिया में उछलने के कारण तत्काल नेतृत्व परिवर्तन की उम्मीद कर रहे थे। इन तीन महीनों में उन पर राजनीतिक हमले तेज हुए हैं। हैरानी की बात यह है कि ये राजनीतिक हमले उन पर विपक्ष ने नहीं बल्कि उनकी अपनी सरकार ने किए हैं। पनबिजली घपले में उन्हे मुख्य दोषी करार देने का सुनियोजित अभियान चलाया गया। क्योंकि पार्टी के भीतर उनके विरोधी जानते हैं कि जनरल की कुल जमापूंजी उनकी ईमानदार छवि ही है और इस छवि के कारण आलाकमान उनको फिर बागडोर सौंप सकता है। खंडूड़ी की छवि को मटियामेट करने से उनका करिश्मा भी ध्वस्त हो जाएगा, यह उनके विरोधी भी जानते हैं। इसलिए पार्टी और सरकार के अंदर से हो रहा यह हमला जनरल के लिए सबसे अप्रिय और घातक है। उनके समर्थक मानते हैं कि उनके साथ ऐसा सुलूक तो कभी कांग्रेस ने भी नहीं किया। लेकिन सत्तारुढ़ खेमे के हमले यहीं तक सीमित नहीं हैं। अब उनके विधानसभा क्षेत्र में ही उनकी जड़ों को खोखला करने का अभियान चलाया जा रहा है ताकि वह अगले विधानसभा चुनाव में वह धुमाकोट से चुनाव जीतने की सोच भी नहीं सकें। उनके समर्थकों का कहना है कि जनरल के विधानसभा क्षेत्र के साथ विरोधी दल के क्षेत्र जैसा सुलूक किया जा रहा है। तमाम विकास कार्य या तो रोक दिए गए हैं या फिर उनकी गति इतनी धीमी कर दी गई है कि अगले विधानसभा चुनाव तक उनमें दस फीसदी काम भी नहीं हो सकेगा। आरोप है कि रिखणीखाल में डिग्री कॉलेज शुरु हो चुका है पर उसे एक पैसा भी नहीं दिया जा रहा है लिहाजा उसका निर्माण लटका हुआ है। ऐसा ही हाल यहां के आईटीआई का है जिस पर काम बंद है। नैनीडांडा और परंडी पंपिग योजनायें रद्द कर दी गई हैं। खंडूड़ी समर्थक आरोप लगा रहे हैं कि क्षेत्र में हजारों वृद्धों और निराश्रितों की समाज कल्याण से मिलने वाली पेंशन रोक दी गई है। जनरल द्वारा शुरु की गई सड़कों में से अधिकांश को धन आवंटित करने की गति इतनी धीमी कर दी गई है कि वे रेंग रही हैं। यदि वे इसी गति से बनाई जाती रहीं तो शायद ही कभी पूरी हो सकेंगी। उनके समर्थक बता रहे हैं कि रिखणीखाल और नैनीडांडा विकासखंड एक-एक डॉक्टर के भरोसे चल रहे हैं। सरकार के इस रवैये पर रिखणीखाल के एक बुजुर्ग फतेह सिंह रावत का कहना था कि ऐसा लग रहा है कि लोगों कोे पूर्व मुख्यमंत्राी के क्षेत्र का होने के लिए दंडित किया जा रहा है। जनरल अभी भी उत्तराखंड भाजपा के सबसे बड़े और करिश्माई नेता हैं। राज्य की 26 विधानसभा सीटों के नतीजे प्रभावित करने की क्षमता वह रखते हैं। लेकिन जनरल यदि लंबे समय तक राजनीतिक रुप से निष्क्रिय और निष्प्रभावी रहे तो उनका राजनीतिक असर और आधार दोनों ही चुक जायेंगे। उनका आभामंडल वक्त की गर्द में धुंधला होकर अपनी चमक खो देगा। आने वाले कुछ महीने खंडूड़ी को तय करना होगा कि वह या तो सरेंडर करें और प्रदेश भाजपा की राजनीति के हाशिए पर रहने की नियति स्वीकार कर लें या फिर भाजपा के भीतर या बाहर अपने पुरुषार्थ के बल पर महत्वपूर्ण भूमिका हासिल करें। इतना तो उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं कि जनरल भाजपा के बगैर भी अपने बूते एक दर्जन प्रत्याशी जिताने की क्षमता रखते ही हैं। जनरल की मुश्किल यह है कि उन्होने अभी तक साहस और जोखिम की राजनीति नहीं की है। उनकी राजनीति की इस सीमा को देखते हुए ही पार्टी के भीतर विरोधी उनके खिलाफ हमलावर हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अनुशासन के मुरीद जनरल कभी भी बगावत की हद तक नहीं जायेंगे। इसके बावजूद जनरल में क्षेत्रीय राजनीति के एक ताकतवर धुरी बनने की पूरी क्षमता है। वह चाहें तो कांग्रेस और भाजपा में बंटी उत्तराखंड की राजनीतिक धारा को मोड़कर इतिहास बना भी सकते हैं और ईमानदारी की दुखांत कहानी के रुप में गुम भी हो सकते हैं।

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