मंगलवार, 10 अगस्त 2010

सरकार ने किया लोकायुक्त का अपमान

उत्तराखंड सरकार किस अंहकार और दंभ के साथ काम कर रही है उसका अनुमान हाल ही में उपलोकायुक्त के पद पर की गई नियुक्ति से हो जाती है। उपलोकायुक्त के पद पर पुष्पा भट्ट की नियुक्ति के बारे में लोकायुक्त को सूचना तक देने का शिष्टाचार निभाने की जरुरत राज्य सरकार ने नहीं समझी। संवैधनिक पद पर बैठे व्यक्ति का इस तरह से अपमानित किए जाने की यह पहली घटना है। इस घटना से लोकायुक्त आहत हैं और उन्होने सरकार के रवैये पर अपनी नाराजगी जता दी है। संकेत मिले हैं कि लोकायुक्त इस नियुक्ति को खारिज कर सरकार को शर्मिंदा कर सकते हैं ।

किसी भी नए राज्य या राष्ट्र के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात यह होती है कि उस पर राज करने वाले राजनेता, अफसर और न्यायाधीश कितनी उदार और महान परंपरायें डालते हैं। यदि एक राष्ट्र के रुप में संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका समेत संवैधानिक संस्थाओं में जो अच्छी परंपरायें हमें आज नजर आती हैं वे इसलिए भी हैं कि आजादी के बाद केंद्र में सत्तारुढ़ होने वाले नेताओं में नेहरु समेत कई ऐसे उदार और लोकतांत्रिक और सचमुच के बड़े नेता मौजूद थे जिन्होने लोकतंत्र की बुनियाद को शानदार परंपराओं के आधार पर खड़ा करने की कोशिश की। भारत परंपराओं का आदर करने वाला देश है। हमारे समाज और देश में लोकतांत्रिक और सामाजिक शिष्टाचार की कई शानदार रस्मंे किसी लिखित आचार संहिता से नहीं बल्कि परंपराओं से निकली हैं।
एक अद्भुत, विचारवान संघर्ष की प्रसव पीड़ा से जनमे उत्तराखंड को लेकर यह उम्मीद की जाती थी कि वह एक पहाड़ी रंग के मिजाज की राजनीति देकर देश को रास्ता दिखायेगा। उत्तराखंड की विधानसभा और उसके राजनेता यह नहीं कह सकते कि उनकी राजनीति में उत्तराखंड के पहाड़ी समाज की कोई विशेषता है उल्टे वह इस नए नवेले प्रदेश को यूपी की राजनीति का घटिया और भ्रष्ट संस्करण बनाने में जरुर कामयाब रहे हैं। लेकिन नई और अच्छी लोकतांत्रिक परंपरायें शुरु करना तो दूर उत्तराखंड की सरकार लोकतांत्रिक और संवैधानिक मर्यादाओं को भी नष्ट-भ्रष्ट कर रही है। राजनीतिक हस्तक्षेप ने पुलिस की इतनी दुर्गति कर दी है कि उसकी हालत होमगार्डों से बदतर हो गई है। सरकार का हर विभाग तो राजनीतिक हस्तक्षेप से तो त्रस्त है ही पर अब हालत यहां तक पहुंच गई है कि लोकायुक्त जैसी संवैधानिक संस्था पर भी उसने हमला बोल दिया है। हाल ही में राज्य सरकार ने एक उपलोकायुक्त की नियुक्ति की। लेकिन नियुक्ति से पहले उसने लोकायुक्त से सलाह लेना तो दूर उसे सूचित करने का शिष्टाचार तक नहीं निभाया। इससे सरकार में बैठे लोगो और नौकरशाही का अहंकार और दंभ उजागर हो जाता है। यह न केवल एक संवैधानिक पद पर बैठे हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस का अपमान था बल्कि लोकायुक्त एवं उपलोकायुक्त एक्ट की धारा तीन बी का सीधा उल्लंघन है जिसमें कहा गया है कि सरकार को उपलोकायुक्त पद पर नियुक्ति करने से पूर्व लोकायुक्त से विचार विमर्श करना होगा। एक्ट के अनुसार ऐसा करना स्वैच्छिक नहीं बल्कि बाध्यकारी है। एक्ट से यह साफ है कि वह सरकार को राय मांगने की औपचारिकता भर निभाने की छूट नहीं देता। बल्कि इसमें कंसल्टेशन शब्द का इस्तेमाल किए जाने से जाहिर है कि लोकायुक्त की सहमति और सम्मति के बिना सरकार उपलोकायुक्त की नियुक्ति नहीं कर सकती। संविधान विशेषज्ञों के अनुसार लोकायुक्त की सलाह के बिना सरकार द्वारा की गई नियुक्ति अवैध है और लोकायुक्त इसे मानने को बाध्य नहीं हैं। साथ ही ऐसी नियुक्ति पर हस्ताक्षर करने से राज्यपाल भी इंकार कर सकते हैं। सूत्रों का दावा है कि अपने साथ किए गए अपमानजनक सुलूक से नाराज लोकायुक्त सरकार के प्रस्ताव को ठुकराने के मूड में हैं।
हैरानी की बात यह है कि अखबारों में उपलोकायुक्त पद पर नियुक्ति की सार्वजनिक घोषणा समाचार माध्यमों में किए जाने के तीन दिन बाद सरकार ने बैक डेट का एक पत्र भेजकर लोकायुक्त से राय मांगने की औपचारिकता पूरी करने की कोशिश की है। विधि विशेषज्ञ हैरत में है कि सरकार एक संवैधानिक पद पर बैठे पूर्व जस्टिस को रबर स्टैंप बनाने की हद तक कैसे चली गई। उनका मानना है कि सरकार के पास विधि विभाग से लेकर एडवोकेट जनरल तक कानून में माहिर लोगों की पूरी टीम है इसलिए यह अनजाने में उठाया गया कदम नहीं है बल्कि जानबूझकर किया गया है। क्योंकि नियुक्ति की फाइल जब चली होगी तभी उसके सारे प्रावधानों पर विचार कर लिया गया होगा। उनका कहना है कि लोकायुक्त एक्ट की धारा 16 में जानबूझकर किए गए अपमान के खिलाफ लोकायुक्त जिम्मेदार अफसर के खिलाफ मामला दर्ज कर सकते हैं। कानून को ठेंगे पर रखने की सरकार की यह हरकत तब और भी गंभीर हो जाती है जब उस पद पर जस्टिस घिल्डियाल जैसा सीधा- सच्चा और विवादों से दूर रहने वाला व्यक्ति बैठा हो। लोकायुक्त के अपमान की यह घटना संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट करने की शर्मनाक कोशिश है।



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