शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

Uttarakhand News

          छोटे अखबारों की बड़ी लड़ाई


                             एस0राजेन टोडरिया

  • आने वाला इतिहास जब कभी मौजूदा मुख्यमंत्री के राजनीतिक सफर को बयां करेगा वह यह भी दर्ज करेगा कि उन्होने अपनी राजनीति का ककहरा भले ही शिशु मंदिर के शिक्षक के रुप में सीखा हो पर राजनीति में उनकी उड़ान की शुरुआत टूटे अक्षरों की इबारत वाले एक चार पेजी अखबार से हुई थी। विडंबना यह है कि वही इतिहास उन्हे पूरी शक्ति,सामर्थ्य और जुनून के साथ छोटे अखबारों के गला घोंटने के लिए भी याद करेगा। भविष्य मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के व्यक्तित्व को इस विरोधाभास की रोशनी में पढ़ेगा और इस अजूबे से विस्मय में भी पड़ेगा। वह शायद इतिहास में अकेले ऐसे पत्रकार राजनेता होंगे जो मात्र कुछ सैकड़ा बंटने वाले छोटे-छोटे अखबारों में भी असहमति और आलोचना के स्वर बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। यह इस बात का भी सबूत है कि सत्ता आदमी को किस हद तक दुर्बल,दयनीय और असहिष्णु बना देती है।
  • उत्तराखंड में बड़े अखबारों और क्षेत्रीय चैनलों को मिलाकर मीडिया की कुल जमा जो तस्वीर बनती है वह चारण अखबारों और चमचा चैनलों की बनती है। काश! हमारे समय में भी कोई भारतेंदु हरिश्चंद्र होते तो मीडिया की इस दुर्दशा पर कोई नाटक जरुर लिखते। फिर भी मीडिया की इस दुर्दशा का पूरा श्रेय सिर्फ मौजूदा मुख्यमंत्री के पुरूषार्थ को देना ठीक नहीं होगा। एनडी तिवारी ने अपने राजनीतिक जीवन के पूरे अनुभव को झोंकते हुए करोड़ों रु0 की खनक के बूते मीडिया की इन कुलीन कुलवधुओं को नगरवधू बना दिया। तिवारी की ही परंपरा पर चलते हुए मौजूदा मुख्यमंत्री ने इन्हे हरम पहुंचा दिया है। विज्ञापन का बजट हर रोज छलांगें मार रहा है। अंतःपुर के कारिंदे रोज किसी न किसी को लाख-दो लाख से लेकर तीस-तीस लाख के पैकेजों की बख्शीशें दिला रहे है। राजा ने अपना खजाना खोल दिया है, ‘‘लूट सके तो लूट’’। प्रदेश में अभूतपूर्व आपदा है, पहाड़ के गांवों में लोग एक-एक पैसे और एक टाइम के खाने के लिए जूझ रहे हैं पर सरकार है कि चैनलों में प्राइम टाइम में दस साल का जश्न पर करोड़ों के विज्ञापन लुटा रही है। विधानसभा चुनाव से पहले की इस लूट में मीडिया मस्त है और पत्रकारिता पस्त है। यह सुनकर अजीब लगे पर सच यही है कि आपदा के दौरान भी उत्तराखंड के दैनिक अखबारों और क्षेत्रीय चैनलों के लिए विज्ञापन कम नहीं हुए उल्टे बढ़ गए । आपदा को लेकर दिए गए विज्ञापनों के आंकड़े इस उलटबांसी के गवाह हैं। अखबारों ने आपदा के नाम पर भी विज्ञापन कमाई के जरिये निकाल लिए।एक हिंदी अखबार ने राहत कार्यों पर सरकार की चमचागिरी का नया रिकार्ड कायम कर दिया। ऐसा घटियापन कि कल्पना करना मुश्किल है कि खरबों रु0 का मीडिया हाउस चलाने वाली कंपनी का एक अखबार मात्र 28 लाख रु0 के पैकेज के लिए इस हद तक गिर जाएगा!लेकिन यह कोई अपवाद नहीं है। ऐसे वाकये अक्सर होते रहते हैं सिर्फ अखबारों के नाम बदल जाते हैं। कुछ अखबार चमचागिरी में शऊार बरतते हैं तो कुछ नंग-धड़ंग होकर 17 वीं सदी के भांडों की तरह इसे अंजाम दे रहे हैं। उत्तराखंड में बड़े दैनिकों ने संपादक को ऐसे प्राणी में बदल दिया गया है जो सरकारी विज्ञापनों के लिए मुख्यमंत्री को रिझाने और पटाने के वे सारे गुण जानता हो जो एक समय गणिकाओं के लिए जरुरी माने जाते थे। माहौल ऐसा है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग सुबहो शाम समाचार माध्यमों में ‘तन डोले मेरा मन डोले’ की धुन ही सुनना चाहते हैं। मुख्यधारा के इस रवैये ने राज्य की पत्राकारिता को भांडगिरी में बदल दिया है। एक अखबार ने मुख्यमंत्री के पुतले जलाने की घटनाओं की खबरें छपने से रोकने के लिए संवाददाताओं को पुतलादहन की खबरें न भेजने का फरमान जारी कर दिया तो दूसरे ने राजनीतिक खबरें छोटी और बाजार से जुड़ी खबरें बड़ी छापने की आचार संहिता लागू कर दी है। अखबार और चैनलों के दफ्तरों में ऐसी खबरों का गर्भपात कर दिया जाता है जिनमें थोड़ा भी मुख्यमंत्री विरोध की गंध आती हो। मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ छापिए पर उतना ही जितने में मुखिया की छवि पर असर न पड़े, यह अलिखित आचार संहिता अखबारों और चैनलों के ऑफिसों में लागू है। खबरें न छापना आज सबसे बड़ा कारोबार बन गया है। पत्रकारिता की पेशेवर ईमानदारी का हाल यह है कि पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी की खबरें अखबारों और चैनलों से सिर्फ इसलिए गायब कर दी गई हैं क्योंकि सत्ता के शिखर पुरूष को चैनलों और अखबारों में जनरल नाम तक देखना पंसद नहीं है। समाचार माध्यम इस संकीर्णता और अनुदारता के राजनीतिक एजेंडे के एजेंट बने हुए हैं। गौरतलब है कि ये वही अखबार और चैनल हैं कि जो जनरल के मुख्यमंत्रित्व काल में उनकी ईमानदारी के कसीदे पढ़ रहे थे।
  • वह वक्त चला गया जब बड़े अखबार सरकारी दबाव झेलने के लिए ज्यादा बेहतर माने जाते थे और तमाम दबावों के बावजूद वे सत्ता की दौलत और ताकत के आगे तने दिखते थे। अब ऐसा समय है जब ये अखबार सरकारी विज्ञापनों के बिना जिंदा ही नहीं रह सकते हैं। पहले छोटे अखबार अपनी आर्थिक संसाधनों की सीमाओं के चलते ज्यादा नाजुक माने जाते थे। बाजार की महिमा देखिये कि उसने कई हजार करोड़ के बड़े-बड़े मीडिया हाउसों को छुईमुई बना दिया है। चारणों और चमचों की पांत में सबसे आगे वे ही हैं जो सबसे बड़े हैं।
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  • लेकिन क्षेत्रीय चैनलों और बड़े अखबारों के पतित होने से सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध की आवाजें दबी नहीं हैं। उत्तराखंड के स्थानीय और छोटे अखबारों के एक हिस्से ने सरकार के आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया है। यह एक सकारात्मक बदलाव है। इस हिस्से में लगातार घोटाले छप रहे हैं, मुख्यमंत्री के खिलाफ खबरें और विश्लेषण छप रहे हैं। इससे हैरान और परेशान मुख्यमंत्री ने पहले घोषणापत्र की आड़ में इन छोटे अखबारों को धमकाने की कोशिश की, सूचना विभाग के अफसर खबरों पर संपादकों के जबावतलब करने की हद तक चले गए। इस पर शर्मिंदा होने के बजाय एक छोटे अखबार के स्वामी,प्रकाशक और संपादक रहे राज्य के मुखिया की छाती गर्व से फूलती रही कि उन्होने छोटे अखबारों को उनकी औकात बता दी। उनके मुंहलगे अपफसर और कांरिंदे हर रोज विरोध में लिखने वाले अखबारों का आखेट करने के तौर तरीके खोजने में लगे हैं। इसी के तहत सचिवालय और विधानसभा में छोटे अखबारों के घुसने पर पाबंदी लगा दी है। जबकि बड़े अखबार वहां बांटे जा सकते हैं। सत्ता के इन शुतुरमुर्गों को यह समझ नहीं आ रहा है कि सरकार के कुछ अफसरों और कर्मचारियों के न पढ़ने से क्या मुख्यमंत्राी के खिलाफ आए दिन छपने वाली खबरों और घोटालों की मारक क्षमता कम हो जाएगी? जाहिर है कि आम लोगों तक तो वे पहुंचेंगी ही। ऐसे कदम एक सरकार की बदहवासी और डर को जाहिर करते हैं और उस पर कमजोर सरकार का बिल्ला भी चस्पा कर देती हैं। तानाशाही सनकों से भरे ऐसे फैसलों के बावजूद न छोटे अखबार डर रहे हैं और न मुख्यमंत्री के खिलाफ खबरें छापने से बाज आ रहे हैं। यह एक तरह से छोटे प्रेस की गुरिल्ला लड़ाई है जो सत्ता के महाबली शिखर पुरुष पर हमले कर उसे बेचैन किए हुए है। जिसने मुख्यधारा के मीडिया को लौह कपाट वाले अपने काले-कलूटे गेट पर चौकीदारी के लिए बांध दिया है, ऐसे शिखर पुरुष के खिलाफ छोटे अखबारों की यह लड़ाई महत्वपूर्ण भी है और सत्ताधारियों के लिए चेतावनी भी है कि वे समूचे प्रेस को दुम हिलाने वाला पालतू पशु में नहीं बदल सकते। कुछ लोग हर समय रहेंगे जो सत्ता के खिलाफ सच के साथ रहने का जोखिम उठायेंगे। यह सिलसिला चलता रहेगा। उल्लेखनीय यह है कि चारणकाल में सच कहने की जुर्रत करने वाले इन सारे छोटे अखबारों,पत्रिकाओं की कुल प्रसार संख्या मुश्किल से कुछ हजार ही है। जो लाखों छपने और बंटने वाले दैनिक अखबारों की दस फीसदी भी नहीं है लेकिन इतनी कम संख्या के बावजूद राज्य के मुखिया इनसे घबराये हुए हैं। लाखों पाठक और दर्शक संख्या वाले अखबार और चैनलों सुबह-शाम प्रशस्ति वाचन के कर्मकांड में लगे हुए हैं तब भी विरोध की इन तूतियों से राजा क्यों हैरान हैं? दरअसल इन अखबारों ने खबरों के असर के उस तिलिस्म को तोड़ दिया है जो बड़े अखबार प्रचारित करते रहे हैं। खबरों पर बड़े अखबारों का एकाधिकार ही नहीं टूटा है बल्कि उनकी सीमायें, दरिद्रता और दयनीयता भी उघड़ गई है। पत्रकारिता के इस समर में वे कागजी शेर साबित हो रहे हैं,उनकी कथित ताकत का मिथक टूट रहा है। जनमत को प्रभावित करने में उनकी भूमिका अब सिफर हो गई है। उनकी हर खबर पर उंगलियां उठती हैं और उसे सत्ता या स्थानीय ताकतवर लोगों के हाथों बिकी हुई खबर मान लिया जाता है। उन्हे खबरों का सौदागर करार दिया जा रहा है। उनके दफ्तरों में सच को कत्ल करने के लिए जो कसाईबाड़े बने हैं उनकी दुर्गंध अब जनता तक पहुंचने लगी है। राज्य के लोग समझ रहे हैं कि राजा नंगा है पर खबरों के ये दुकानदार उसके कपड़ों के डिजायन की तारीफ में पन्ने रंग रहे हैं। मुख्यधारा के समाचार माध्यमों की साख के इस तरह निम्नतम स्तर पर पहुंच जाने से ही आम लोग खोज-खोज कर सरकार विरोधी खबरें पढ़ रहे हैं। इससे इतना तो पता चल ही जाता है कि लोगों का रूझान बदल रहा है,जिस पाठक को मीडिया के महारथी ‘विचारविहीन उपभोक्ता’ प्राणी घोषित कर चुके हैं उसका मिजाज बदल रहा है। वह बदलाव के मोर्चे पर भले ही लड़ाई नहीं लड़ रहा हो पर वह सत्ताधरियों के काले सच को विचार के साथ जानना चाहता है। उत्तराखंड कभी भी वैचारिक रुप से गंजे लोगों की नासमझ भीड़ नहीं रहा है। उसके भीतर सच जानने को उत्सुक समाज है।
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  • लोकप्रियता में आये इस उछाल से छोटे अखबारों को भी मुगालते में नहीं रहना चाहिए। यह उनका नहीं उस सच का चमत्कार है जो वे छाप रहे हैं। छोटे अखबार यदि अपने हीनताबोध से उबर सकें तो वे साबित कर सकते हैं कि अखबार बड़े या छोटे नहीं होते, ये खबरें हैं जो अखबारों को बड़ा बनाती हैं तो उन्हे छोटा भी साबित कर देती हैं। खबरों की मारक सीमा और क्षमता हर साल जारी होने वाले प्रसार संख्या के निर्जीव और गढ़े गए आंकड़ों से तय नहीं होती। खबरों में सच और दम होता है तो वे एक मुख से दूसरे मुख तक होते हुए या फोटोस्टेट होकर भी कई गुना घातक हो जाती हैं। सच और अपने समाज की समझ मामूली माने जाने वाली खबरों को भी कालजयी बना देती है।
  • उत्तराखंड के पत्रकारिता क्षितिज पर घट रही यह छोटी सी घटना बताती है कि देश के स्तर पर पत्रकारिता को समर्पित छोटे अखबारों,चैनलों और इंटरनेट अखबारें के बीच यदि राष्ट्रीय स्तर पर तालमेल और संवाद स्थापित हो सके तो जनपक्षीय पत्रकारिता का एक बड़ा गठबंधन भविष्य में उभर सकता है। यह कठिन है पर इस दिशा में गंभीर प्रयास शुरू किए जाने चाहिए। मीडिया हाउसों के एकाधिकारवादी भस्मासुरों के खिलाफ यह पत्रकारिता के जनतंत्रीकरण और विकेंद्रीकरण की शुरूआत हो सकती है।
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मंगलवार, 2 नवंबर 2010

Uttrakhand News: राज्य के आंकड़ों की साख पर सवाल ही सवाल

               21000 करोड़ का झूठ
बरसात का कहर अभी थमा भी न था कि मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार से 21हजार करोड़ का राहत पैकेज मांगकर अपने अफसरों से लेकर भाजपा के बड़े नेताओं को हैरत में डाल दिया। विशेषज्ञ सशंकित थे कि नौकरशाही मुख्यमंत्री के भारी भरकम आंकड़े के बराबर की आपदा को फाइलों में कैसे डिजायन कर सकेगी। राजनीतिक दबाव में सरकारी अमले ने 21000 करोड़ रुपए की आपदा को फाइलों में पैदा कर दिखा दिया कि आंकड़ेबाजी की कला में वे देश के सबसे बेहतरीन सरकारी तंत्र हैं। केंद्र में कई जिम्मेदारियां निभा चुके एक रिटायर्ड आईएएस अफसर ने इस आंकड़े पर टिप्पणी करते हुए कहा,‘ अविश्वसनीय! विचित्र!! और बचकाना!!! उन्होने आगे कहा,‘ लगता है आपके मुख्यमंत्री पिस्तौल पाने के लिए तोप का लाइसेंस मांग रहे हैं।’ आपदा राहत के इतिहास के दस सबसे बड़े राहत पैकेजों में से एक के लिए इतना भारी भरकम आंकड़ा खोजकर खुद को कोलबंस मान रही सरकार को शायद पता भी न हो उसके आंकड़े ही इस फर्जीवाड़े की पोल खेल रहे है। इन आंकड़ों का विश्लेषण साबित कर देता है कि इसमें बुनियादी बातों का भी ध्यान नहीं रखा गया। सारे कामों की वीडियोग्रापफी कराने के केंक्त के अभूतपूर्व फैसले ने इन आंकड़ों की साख पर सवालिया निशान लगा दिया है। विडंबना यह है कि इस महाकाय राशि में में आपदा पीड़ितों के हिस्से बस एक फीसदी ही आएगा । उनमें से अधिकांश को 2,250 रु0 से ज्यादा नहीं मिलेंगे । राहत की मलाई सरकारी विभागों के लिए आरक्षित होगी।
राज्य सरकार द्वारा केंद्र को भेजे गए 21000 करोड़ रुपए की राहत की डिमांड का विश्लेषण करने से पहले यह जानना उचित होगा कि यह आंकड़ा किस तरह से तैयार हुआ। दैवी आपदा के आकलन का ग्रास रूट पर पटवारी ही एकमात्र सरकारी कर्मचारी है। इस समय पहाड़ में 1,220 पटवारी हैं जिनमें से हरेक को औसतन सात गांव देखने पड़ते हैं। इन्ही पटवारियों से मिली सूचना के अनुसार सरकार से उन्हे 25 सितंबर को आपदा से हुए पूरे नुकसान की रिपोर्ट भेजने का आदेश मिला और अक्तूबर के पहले सप्ताह में उन्होने रिपोर्ट जिला प्रशासन को भेज दी। इन रिपोर्टों को संकलित करने में यदि दो दिन भी लगे हों तब भी यह रिपोर्ट दस अक्तूबर को ही राज्य मुख्यालय पहुंच पाई होगी। लेकिन मुख्यमंत्री ने 21000 करोड़ के नुकसान का बयान 22-23 सितंबर को हुए विधानसभा सत्र के दौरान ही दे दिया था। सचिव आपदा डा0राकेश कुमार के अनुसार नुकसान के इस आकलन को केंद्रीय राहत दल के आने से पहले 30 सितंबर को अंतिम रुप दे दिया गया था। क्या मात्रा एक सप्ताह में लगभग एक लाख 20 हजार लंबी सड़कों, नहरों और बिजली लाइनों, साढ़े सात लाख हेक्टेयर कृषि भूमि, दो लाख हेक्टेयर बगीचों,23 लाख मकानों और लगभग 22 हजार स्कूल भवनों का सर्वे किया जा सकता है? वह भी सिर्फ दो हजार कर्मचारियों द्वारा? 670 कृषि कर्मी एक सप्ताह में 7 लाख 16 हजार हैक्टेयर यानी एक कर्मचारी ने प्रतिदिन 4 गांवों की 7600 नाली जमीन पर खड़ी फसल का सर्वे किया। एक उद्यानकर्मी ने प्रतिदिन में 6 गांवों में जाकर 2300 नाली में स्थित बगीचों का सर्वे कर लिया। यदि ऐसा हुआ है तो यह चमत्कारिक है। आश्चर्यजनक यह भी है कि सार्वजनिक संपत्तियों और कृषि भूमि को हुई क्षति के आकलन के लिए सरकार ने ग्राम स्तर पर समितियों के गठन का शासनादेश 13 अक्तूबर को जारी किया। इस आदेश में सभी जिलों के डीएम को ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य, ग्राम विकास अधिकारी और स्थानीय प्राइमरी विद्यालय के शिक्षक की चार सदस्यीय समिति गठित करने का निर्देश दिया गया। समितियों को क्षतियों के विवरण भेजने के लिए एक सप्ताह का समय दिया गया। जाहिर है कि यह ब्यौरा 20 अक्तूबर तक जिलाधिकारियों तक पहंुचा होगा और जिलों से संकलित होकर 23 अक्तूबर तक यह सचिवालय आया होगा।अब सवाल यह उठता है कि जब 23 अक्तूबर तक अंतिम रिपोर्ट नहीं आई तब मुख्यमंत्री ने एक माह पहले, सचिवालय ने तीन सप्ताह पहले कैसे 21000 करोड़ रु0 के नुकसान का सटीक पूर्वानुमान लगा दिया और यही नहीं इस अनुमान को आंकड़ों में ढ़ालकर केंक्तीय दल और प्रधनमंत्राी को भी सौंप दिया। गजब यह कि ऐसा पटवारियों द्वारा भेजी गई पहली रिपोर्ट से भी पहले ही कर दिया गया। इसी संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि सरकार में आपदा के आकलन को लेकर खासा कन्फ्यूजन व्याप्त है। इसी कारण से नुकसान के आकलन को लेकर शासन में रिपोर्टों के प्रारूप बदलते रहे। 4 सितंबर को शासन ने सभी विभागों को पत्र भेजकर केंद्र के मानकों के आधार पर रिपोर्ट तलब की फिर 14 सितंबर को नया प्रारुप भेजकर आंकड़ों को नये सिरे से मंगाया गया। इस प्रारूप में मानक बदल दिए गए। सूत्रों का कहना है कि नुकसान के सूचकांक को 21000 करोड़ रु0तक पहुंचाने का ड्रीम प्रोजेक्ट इसी प्रारूप के साथ शुरू हुआ। अब एक बार फिर समितियां बनाकर नुकसान का जायजा लिया जा रहा है। इस प्रकार विभागों से तीन बार रिपोर्टें मंगाई गईं। यह कन्फ्यूजन आंकड़ों के पीछे चल रहे खेल को उजागर कर देता है।
भूस्खलन से प्रभावित गांवों को लेकर केंद्र को भेजी गई रिपोर्ट से भी यही जाहिर होता है। सर्वे के लिए अभी भूविज्ञानियों के दल बाद में गठित किए गए और उनका सर्वे अभी तक पूरा नहीं हुआ पर सरकार सितंबर में ही इस नतीजे पर पहुंच गई कि 233 गांव अब लोगों के रहने के लिए खतरनाक हो चुके हैं और इनके पूर्ण विस्थापन के अलावा कोई विकल्प नहीं है। चंूकि मांगी गई राहत का 57 फीसदी इन गांवों के ही पुनर्वास पर खर्च किया जाना है इसलिए इस आंकड़े की विश्वसनियता मायने रखती है। इसका न केवल वैज्ञानिक आधार होना चाहिए बल्कि राज्य और केंद्र द्वारा प्रति परिवारके लिए निर्धरित पुनर्वास राशि के मानक पर इस आंकड़े को खरा उतरना चाहिए पर सच्चाई यह है कि सरकार के इस आंकड़े का कोई वैज्ञानिक आधार अभी तक स्थापित नहीं हो पाया है और यह केवल प्रथम दृष्ट्या सतही अनुमान मात्र है।
अब जरा तथ्यों और तर्क पर सरकार के आंकड़ों को परखा जाय। राज्य सरकार के आंकड़े के हिसाब से 233 गांवों के 3049 परिवारों के पुनर्वास के लिए 12000 करोड़ रूपए उसे चाहिए। यानी वह पुनर्वास के लिए प्रति परिवार पर 4 करोड़ रुपए खर्च करेगी। यदि ऐसा है तो देश की सबसे बेहतरीन पुनर्वास नीति और मानक तय करने के लिए उसकी पीठ थपथपाई जानी चाहिए। क्या वह निजी और सरकारी क्षेत्र के बिजली प्रोजेक्टों के विस्थापितों को वह इसी दर से मुआवजा देगी? टिहरी बांध के नए विस्थापितों के लिए सरकार जमीन इत्यादि का इंतजाम करने के बजाय एकमुश्त 38 लाख रु0 देने पर विचार कर रही है जो कि केंद्र को भेजे गए प्रति परिवार पुनर्वास खर्च का मात्र दसवां हिस्सा है। सरकार यदि एक करोड़ रु0 भी प्रति परिवार एकमुश्त भुगतान करने को तैयार हो तो इन 233 गांवों के लोग अपने लिए खुद ही जमीन का इंतजाम कर लेंगे। सरकार को उन पर 12000 करोड़ के बजाय सिर्फ 3000 करोड़ ही खर्च करने हैं। जाहिर है कि पुनर्वास पर आने वाला खर्च अव्यवहारिक और बढ़ाचढा कर पेश किया गया है। इसके पीछे इन गांवों को बसाने की मंशा नहीं बल्कि केंद्र को इस प्रस्ताव को नामंजूर करने के लिए बाध्य करने की रणनीति है।
नुकसान दूसरा सबसे बड़ा आंकड़ा पीडब्लूडी का है जिसकी 13,600 किमी सड़कें तबाह हुई बताई गई हैं। इसके लिए केंद्र से पांच हजार पांच सौ 17 करोड़ रु0 मांगे गए हैं। यह कुल राहत का लगभग एक चौथाई है। यह आंकड़ा इसलिए चकित करता है कि राज्य में सड़कों की कुल लंबाई 26000किमी के आसपास है। इस आंकड़े के हिसाब से राज्य की आधी सड़कें पूरी तरह से नष्ट हो गई हैं। दूसरी ओर लोनिवि का दावा है कि उसने 90 फीसदी सड़कों पर यातायात बहाल कर दिया है। इस आंकड़े में केंद्र से हर सड़क के लिए प्रति किमी 37 लाख रु0 मांगे गए हैं। लोनिवि के सूत्र बताते हैं कि बिलकुल नई सड़क बनाने के लिए भी खर्च 30-35 लाख रु0 आता है। यदि बिल्कुल चट्टान काटकर बनानी है तो यह खर्च अधिकतम 45 लाख रु0 आएगा। तो क्या लोनिवि ये 13600 किमी पहले बन चुकी सड़कें चट्टानें काटकर बनाने वाली है। जाहिर है कि आंकड़े इतने बड़े कर दिये गए हैं कि एस्टीमेट की साख गिरकर शून्य हो गई है।विभागीय सूत्रों का कहना है कि यदि इतने ही किमी सड़कें वाकई प्रभावित हुई हैं तो भी पहले बनी सड़कों को ठीक करने पर अल्पकालीन और दीर्घकालीन खर्च 1000 करोड़ रु0 से ज्यादा नहीं आएगा। यानी केंद्र को पांच गुना ज्यादा का आंकड़ा भेजा गया है। शहरी क्षेत्रों में एक किमी सड़क बनाने के लिए 39 लाख 14 हजार रु0 की दर से 327 किमी सड़कें पूरी तरह से नई बनाने के लिए 128 करोड़ रु0 की डिमांड की गई है। क्या शहरों में 470 किमी सड़कें बह गई हैं? क्या सरकार शहरी निकायों को 39 लाख रु0 की इसी दर पर रखरखाव का खर्च दे रही है? जबकि इतनी ही किमी सड़कों को फिर से ठीक-ठाक करने पर वास्तविक व्यय 22 करोड़ आएगा। इसी प्रकार सिंचाई विभाग में यदि 1813 किमी नहरें और 470किमी तटबंध यदि पूरी तरह बह भी गए हैं तब भी 18 लाख प्रति किमी की दर से नहर और 60 लाख प्रति किमी की दर से बाढ़ सुरक्षा ढ़ांचे को तैयार करने में भी 611 करोड़ रु0 का खर्च आएगा जबकि सरकार ने इसका तिगुना 1522 करोड़ रु0 का एस्टीमेट केंद्र को भेजा है। बिजली विभाग की क्षति सरकारी आकलन के अनुसार एक किमी बिजली की लाइन का खर्च 15 लाख रु0है। सरकार के हिसाब से 1369 किमी बिजली की लाइनें पोल सहित नष्ट हो गई हैं। यानी हर जिले में 100 किमी बिजली की लाइनें पूर्ण नष्ट हो चुकी हैं। उस पर तुर्रा यह कि यूपीसीएल भी दावा कर रहा है कि सभी शहरी इलाकों और अधिकांश ग्रामीण इलाकों में बिजली आपूर्ति सामान्य है। सरकार के आंकड़ों का यकीन करें तो राज्य की पांच हजार पेयजल योजनायें नष्ट हो चुकी हैं। इन पर प्रति योजना 20 लाख 60 हजार रु0 का एस्टीमेट केंद्र को भेजा गया है। प्रधनमंत्री को दिए गए पत्र में दिए क्षति के आंकड़ों के अनुसार राज्य के 2356 विद्यालय नष्ट हुए हैं। इसके लिए राज्य सरकार हर विद्यालय के लिए 15 लाख 28000रु0 मांगे हैं। जबकि विश्वबैंक परियोजना के तहत बनने वाले प्राथमिक विद्यालयों के लिए केंद्र सरकार के मानक 3 लाख रु0प्रति विद्यालय और राज्य सरकार के मानक दो लाख रु0 प्रति विद्यालय है। केंद्रीय मानकों के अनुसार 2,356 विद्यालयों को फिर से नया बनाने के लिए 70 करोड़ और राज्य के मानकों के हिसाब से 47 करोड़ रु0 चाहिए पर डिमांड पांच से आठ गुना ज्यादा 360 करोड़ रु0 की है। इस प्रकार राज्य सरकार द्वारा की गई इस 20,336 करोड़ रु0 की डिमांड की असलियत यह है कि उसके नुकसान के आंकड़ों में छेड़खानी किए बगैर उन सुविधाओं को पहले जैसा करने और 233 गांवों को शानदार ढंग से बसाने पर भी 5000 करोड़ रु0ही खर्च आएगा जबकि सरकारी आंकड़ों में यह चार गुना बढ़ा दी गई है।
सवाल उठता है कि सरकार ने राहत के मानकों को जानते हुए भी ऐसे आंकड़े क्यों पेश किये जो मानकों से तो कई गुना ज्यादा थे ही पर वास्तविकता से भी परे थे। यह सही है कि देश की लगभग हर राज्य सरकार प्राकृतिक आपदाओं के लिए केंद्रीय मदद मांगती हैं तो वे नुकसान के आंकड़ों को कुछ हद तक बढ़ा चढाकर पेश करती हैं। यह सामान्य प्रवृत्ति है। लेकिन हर राज्य सरकार यह भी ध्यान रखती हैं कि उनके द्वारा दिये गये आकलन की विश्वसनियता बनी रहे। यह राज्य और सरकार दोनों की साख के लिए जरुरी होता है। यदि आंकड़ा बेसिरपैर का हो तो शर्मिंदगी सरकार को ही उठानी पड़ेगी। ऐसा हुआ भी है। केंद्र सरकार ने अभूतपूर्व फैसला लेते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिए हैं कि वह प्रत्येक निर्माण कार्य से पहले और बाद की स्थिति की वीडियोग्राफी कराये। पहली बार किसी राज्य सरकार के कामकाज पर केंद्र ने इस तरह का खुला संदेह व्यक्त किया है। जाहिर है कि राज्य सरकार की साख सवालों के घेरे में है।
ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि राज्य सरकार ने ऐसा आंकड़ा क्यों प्रचारित किया जो पहली ही नजर में अविश्वसनीय लग रहा हो। जिससे और तो दूर खुद भाजपा ही नहीं पचा पा रही हो। दरअसल यह राजनीतिक आंकड़ा है जो सन् 2012 के विधानसभा चुनाव की जरुरत से पैदा हुआ है। मुख्यमंत्री और उनके रणनीतिक सलाहकार जानते हैं कि केंद्र कुछ भी कर ले पर 21000 करोड़ रु0 की राहत मंजूर नहीं करेगा। ऐसे में भाजपा यह प्रचार कर सकेगी कि कांग्रेस ने आपदा में भी लोगों की पर्याप्त मदद नहीं की और जरुरत से बहुत कम सहायता दी। मुख्यमंत्री चालाक राजनेता हैं और चुनावी शतरंज की बिसात पर अपना एक-एक मोहरा शातिर तरीके से चल रहे हैं। यही वजह है कि 500 करोड़ रुपये की केंद्रीय मदद के बावजूद कांग्रेस बचाव की मुद्रा में है और एक धेला खर्च किए बगैर राज्य सरकार हमलावर है। बारीकी से बुनी गई इस रणनीति के तहत ही ग्राम स्तर पर मौजूद सरकारी अमला आपदा पीड़ितो को समझा रहा है कि उन्हे पर्याप्त राहत इसलिए नहीं मिल सकती क्योंकि केंद्र सरकार के मानक यही हैं। लोगों का गुस्सा कांग्रेस की ओर मोड़ने के इस नायाब तरीके के लिए ही 21000 करोड़ की राहत का फार्मूला निकाला गया है। इसे राजनीतिक रुप से कैश करने का बाकी काम जिला स्तर पर बन रही भाजपा की राहत कमेटियां करेंगी जो सरकारी राहत से अपने वोटबैंक का भला भी करेंगी और नाकाफी राहत से पैदा होने वाले गुस्से को कांग्रेस की ओर भी मोड़ेंगी।
इसका एक और कोण है जो कांग्रेस देख रही है। कांग्रेस उपाध्यक्ष सुबोध उनियाल का कहना है कि विभागों को मिलने वाली केंद्रीय मदद का इस्तेमाल सरकार चुनावी फंड एकत्र करने में करना चाहती है। राज्य के आपदा पीड़ित इलाकों में आजकल आम चर्चा है कि निर्माण और मरम्मत कार्यों से जुड़े हर विभाग को दस लाख रु0 प्रति डिवीजन के हिसाब से ऊपर पहुंचाने को कहा गया है। गांवों की चौपालों पर यह भी खबर उड़ाइ जा रही है कि राजस्व, कृषि, उद्यान जैसे विभागों को 6 प्रतिशत ऊपर देने को कहा गया है। इन चर्चाओं का आधार तो पता नहीं पर इतना जरुर है कि इनसे गांवों की राजनीति गूंज रही है।
आपदा में भ्रष्टाचार को लेकर आने वाले समय में जबरदस्त बबंडर उठने वाला है। खुद सरकारी अफसरों का कहना है कि यदि सरकार को फर्जी कामों से बचना है तो हर सिंचाई,लोनिवि, लघु सिंचाई, प्राथमिक विद्यालयों, शहरी निकायों और बिजली विभागों से जुड़ी सभी क्षतियों की वीडियोग्राफी गैर सरकारी स्वयंसेवी संगठनों और निष्पक्ष एजेंसियों से कराई जाय और सभी निर्माण एजेंसियों के कामों का सोशल ऑडिट कराया जाय ताकि भ्रष्टाचार की संभावना को न्यूनतम किया जा सके। उधर कांग्रेस का कहना है कि किसी भी हालत में कुंभ को दोहराने का मौका नहीं देंगे। कांग्रेस नेता केंक्त से यह भी मांग कर सकते हैं कि केंद्रीय  मदद पर नजर रखने के लिए उसी तरह के इंतजाम किए जांय जिस तरह कॉमनवेल्थ के निर्माणकार्यों की जांच के लिए किए गए हैं।

सोमवार, 1 नवंबर 2010

Uttrakhand News

Latest Issue of Janpaksh Today   is available in all premier news agencies of Uttrakhand. This issue reveals the  the inside story of Govt fuctioning in Uttrakhand.

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

Uttarakhand News- BJP Crisis

कर्नाटक में भाजपा ने लोकतंत्र को किया शर्मसार
उत्तर प्रदेश में बसपा के एक दर्जन विधायकों के दल बदल को जायज ठहराने वाले भाजपा के केसरीनाथ त्रपाठी के नक्शे कदम पर चलते हुए कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष ने भी लोकतंत्र के इतिहास में एक और काला पन्ना जोड़ दिया है। सिद्धांतों की सबसे ज्यादा दुहाई देने वाली भाजपा ने कर्नाटक में जो किया है उससे साफ हो गया है कि सत्ता के लिए वह कुछ भी करने को तैयार है। इस मामले में वह कांग्रेस को कोसों पीछे छोड़ चुकी है। विधानसभाध्यक्ष केजी बोपेया ने ह्विप का उल्लंघन किए बिना ही विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया। वह यहीं नहीं रुके और लोकतंत्र को ठेंगा दिखाते हुए उन निर्दलीयों को भी अयोग्य घोषित कर दिया जो भाजपा विधानमंडल के सदस्य ही नहीं हैं। भारतीय राजनीति में अपने चाल, चरित्रा और चेहरे का दंभ लेकर आई इस पार्टी का हाल यह है कि वह सत्ता के भूखे नेताओं की लालची भीड़ में बदल गई है।
  • दक्षिण के द्वार पर दस्तक देकर भाजपा जब जोर-शोर के साथ कर्नाटक की सत्ता पर काबिज हुई थी तब भी वह अपने पुण्य से नहीं बल्कि कर्नाटक में खनन के सरगनाओं की मदद और आर्शीवाद से ही सत्ता में आई थी। कर्नाटक से लेकर आंध्र प्रदेश तक राजनीति पर खनन माफिया हावी है। अंतर बस इतना है कि आंध्र प्रदेश में वह कांग्रेस के साथ है और कर्नाटक में उसने भाजपा का दामन थाम लिया है। खनन के काले धन ने कर्नाटक और आंध्र की राजनीति को इस कदर गंदा और भ्रष्ट कर दिया है कि वहां सरकारें जनहित से ज्यादा इन माफियाओं के लिए चल रही हैं। कर्नाटक में भाजपा के भीतर कभी शांति नहीं रही। येदुरप्पा भले ही मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे हों पर भाजपा में प्रभावशाली रहे आडवाणी खेमे के अनंतकुमार गुट को वह फूटी आंख नहीं सुहाए। येदुरप्पा के खिलाफ लगातार असंतोष सर उठाता रहा और भाजपा आलाकमान इस पर काबू पाने में नाकाम रहा।
  • मुख्यमंत्री के खिलाफ ताजी बगावत भी भाजपा की अंदरूनी राजनीति का ही नतीजा है। इतना जरूर है कि इस बगावत को जेडीएस के कुमारस्वामी ने संरक्षण दिया और पर्दे के पीछे कांग्रेस ने हवा दी पर इससे भाजपा अपनी कमजोरियों से बरी नहीं हो जाती। निश्चित तौर पर यह सब तब ही हुआ जब भाजपा में अंदरूनी लड़ाई बगावत के स्तर जा पहंची। यह भी सही है कि बगावत करने वाले सदस्यों के पास विधायक दल में विभाजन के लिए जरूरी संख्या नहीं थी।
  • लेकिन कर्नाटक असेंबली के भीतर जो हुआ उसने संविधान की धज्जियां उड़ा दी। विधानसभा के स्पीकर ने सदन शुरू होने से पहले ही न केवल विधानसभा के बाहर घटी घटनाओं का संज्ञान लिया बल्कि उसको आधार बनाकर भाजपा के 11 विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया। यह पूरी तरह से गैर कानूनी था। क्योंकि स्पीकर केवल और केवल सदन के भीतर की घटनाओं पर निर्णय के लिए जिम्मेदार है और सदन के बाहर की घटनायें उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आतीं। सारे संवैधानिक प्रावधानों को ताक पर रखते हुए स्पीकर ने हद से बाहर जाते हुए उन निर्दलीयों को भी अयोग्य ठहरा दिया जो भाजपा के सदस्य ही नहीं थे। जबकि निर्दलीयों के खिलाफ ऐसी कार्रवाई तभी हो सकती है जब उन्होने दल की ऐशोसियेट सदस्यता ले ली हो। स्पीकर को किसी विधायक को अयोग्य ठहराने का अधिकार तभी है जब कोई विधायक पार्टी के ह्विप का उल्लंघन करे। ऐसा वाकया कई बार हुआ है जब किसी विधायक या संसद सदस्य ने अपनी पार्टी के खिलाफ सार्वजनिक बयान दिए पर सदन में ह्विप का उल्लंघन नहीं किया लिहाजा उनको अयोग्य नहीं करार दिया जा सका। इस मामले में संवैधानिक प्रक्रिया के हिसाब से पहले मुख्यमंत्राी विश्वास मत पेश करते और उसके बाद सभापति उस पर मत विभाजन करवाते। मतविभाजन में यदि भाजपा के बागी सदस्य सरकार के खिलाफ वोट करते तब बीजेपी द्वारा लिखित मांग करने पर सभापति अयोग्यता की कार्रवाई आरंभ करते। बीजेपी की मांग और प्रमाण के बावजूद सभापति के लिए जरूरी था कि वह विधयकों को अपना पक्ष रखने का मौका देते। जिस व्यक्ति पर आरोप लगाया जा रहा हो उसे सफाई का मौका देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के तहत जरूरी है। लेकिन कर्नाटक असेंबली में इन सब नियमों और प्रक्रिया का पालन ही नहीं हुआ। बागी विधायकों को सभापति के आदेश पर पुलिस ने सदन में जाने से रोक दिया और उन्हे वोट देने का मौका ही नहीं दिया गया। तकनीकी स्थिति यह है कि अयोग्य घोषित किए गए सदस्यों ने पार्टी ह्विप का उल्लंघन ही नहीं किया। सवाल उठता है जब उन्होने ह्विप का उल्लंघन ही नहीं किया तब उन्हे सभापति कैसे अयोग्य घोषित कर सकते हैं? जाहिर है कि सभापति ने पक्षपातपूर्ण तरीके से भाजपा के एजेंट की तरह काम किया और उतने विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया जितने में सरकार बच सकती थी। गजब यह है कि इनमें से किसी को भी अपना पक्ष रखने का मौका तक नहीं दिया गया। भारत के विधायी इतिहास में यह पहला मौका है जब कोई दल सरकार बचाने के लिए इस सीमा तक गया। यह विडंबना ही है कि सबसे अलग चाल,चरित्र और चेहरे होने का दम भर रही भाजपा के नाम पर ही संविधान की ध्ज्जियां उड़ाने के रिकार्ड हैं। उत्तरप्रदेश में विधानसभा अध्यक्ष के रुप में केशरी नाथ त्रिपाठी ने मुलायम की सरकार बचाने के लिए बसपा से साफ तौर पर दलबदल कर आए एक दर्जन विधायकों की सदस्यता खत्म करने के बजाय उनका मामला सालों तक लटकाए रखा और उनके समर्थन के बूते सरकार चलती रही। भाजपा की इस हरकत को यूपी के लोगों ने माफ नहीं किया और भाजपा इस तरह की अवसरवादिता के कारण वहां वनवास पर है।
  • इस घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि विधानसभाओं में दलबदल और बहुमत को लेकर किए जाने वाले फैसलों में विधानसभा अध्यक्ष न तटस्थ रहते हैं और न न्याय के तकाजे पूरे करते हैं। अध्यक्ष के पक्षपातपूर्ण और तानाशाही भरे रूख के चलते विधानसभा के भीतर बहुमत तय करने की संवैधानिक व्यवस्था विफल हो गई है। भाजपा ही नहीं बल्कि लगभग सभी दलों के सभापति इस प्रावधान का दुरूपयोग कर रहे हैं। इसलिए जरुरी है कि सभापति के बजाय किसी संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति की अध्यक्षता में विश्वास मत पेश कराया जाय और मतों की गिनती से लेकर विश्वासमत के पास होने या गिरने का ऐलान वही व्यक्ति करे। बेहतर हो कि यह जिम्मा चुनाव आयोग को ही सौंपा जाय और बहुमत जुटाने या सरकार गिराने में धन के इस्तेमाल पर भी आयोग को ही नजर रखने का अधिकार दिया जाय। ऐसी व्यवस्था न होने से बहुमत साबित करने की पूरी प्रक्रिया मजाक बनकर रह गई है।
  • अचरज यह है कि साफसुथरी राजनीति का ढिंढोरा पीटनेवाली भाजपा इस मामले में रंगे हाथ पकड़ी गई है। समूचे देश को मालुम है कि भाजपा के पास सरकार चलाने के लिए आवश्यक बहुमत नहीं था। इसके बावजूद भाजपा के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी भी कर्नाटक सरकार के पास बहुमत होने के सफेद झूठ को सही ठहरा रहे हैं। अस्सी साल की उम्र के एक बुजुर्ग से यह देश सच बोलने की अपेक्षा तो कर ही सकता है। महाभारत में कहा गया है कि वह सभा, सभा नहीं है जिसमें कोई बुजुर्ग न हो और वह बुजुर्ग, बुजुर्ग नहीं है जो न्यायसंगत बात न करता हो। काश! हिंदू संस्कृति के सबसे बड़े राजनीतिक भाष्यकार आडवाणी ने महाभारत के ये नीति वाक्य पढ़ लिए होते! इस मामले पर भाजपा जितना शोर मचा रही है उतना ही उसका चरित्र लोगों के सामने प्याज के छिलकों की तरह उतर रहा है। क्या आरएसएस की चरित्र निर्माण की फैक्टरी में येदुरप्पा, खनन सरदार रेड्डी बंधु और केजी बोपेया जैस नेता ही तैयार किए जाते हैं ?
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शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

Uttarakhand News

                                               शहीदों ! हम शर्मिंदा हैं !!


 
उत्तराखंड आंदोलन को 16 साल बीत गए और अलग राज्य बने 10 साल होने को हैं। इसके बावजूद सत्ता पर काबिज चौकड़ी के अलावा कोई यह नहीं कह सकता कि हम इन 10 सालों में शहीदों के सपनों का उत्तराखंड बनाने में कामयाब रहे हैं या उस दिशा में जाते दिख रहे हैं। उत्तराखंड आंदोलन के सपने, लक्ष्य और सवाल सब बेमानी हो चुके हैं। उत्तराखंड में एक ही सूत्रवाक्य, ‘‘लूटो, खसूटो और घर भरो’’ चल रहा है। राजनीति से लेकर सरकारी तंत्र,खबरनवीसों से लेकर साहित्य,संस्कृति और धर्म तक सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में बस पिंडारी ठगों और धंधेबाजों का बोलबाला है। दस साल लंबी यह रात अंधेरी है और काली भी! लेकिन मशाल दिखाना तो दूर जलाने वाला भी कोई नहीं ! निराशाओं का दौर है पर सपने देखने वाला और दिखाने वाला भी दूर-दूर तक नहीं! लेकिन इस अंधेरे वक्त में उम्मीद की हल्की और कांपती लौ को जलाए रखिए, रोशनी के उस बारीक रेशे को थाम कर रखिए! हो सकता है कि उसी से इस अंधेरे से निकलने का कोई रास्ता निकले!
  • दो अक्तूबर आया और गुजर गया। वक्त के गुबार में एक कौम के दिलो दिमाग से मसूरी, खटीमा और मुजफ्रपफरनगर की सड़कों पर बहे खून की स्मृतियां धुंधली पड़ने लगी हैं। बलात्कार के अपमान का लावा एकाध साल खौलकर अब ठंडा होकर सतह के नीचे जमने लगा है। आने वाले सालों में उस पर विस्मृति की राख की तहें जम जाएंगी। उत्तराखंड आंदोलन के गीत अब लोकगीतों की तरह याद आते हैं। गाहे- बगाहे हम उन्हे गुनगुनाते हैं। वे ससुराल में रह रही ब्याहता को मायके की याद दिलाने वाले खुदेड़ गीतों की तरह हमें कुछ देर के लिए बेचैन करते हैं और अगले ही क्षणों में हम सब अपनी जिंदगियों की भागदौड़ में व्यस्त हो जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि सदियों की नींद से जागते हुए 16 साल पहले लाखों लोगों ने एक साथ एक सपना देखा था। इतिहास के अंधेरे दौरों से गुजरते हुए एक समाज ने उत्तराखंड को देश का सबसे बेहतरीन राज्य बनाने का सपना देखा था और उस सपने के लिए कई जवान, कमसिन लड़के अपनी जान कुर्बान कर गए। इन सालों में बस इतना हुआ है कि शहीदों की शान में नेताओं के भाषण लंबे और उबाऊ होते गए हैं। इन भाषणों का रिकार्ड घिस-घिस कर बेसुरा हो गया है और सरकारी दफ्तरों के बाहर मान्यता की कृपा के लिए तरस रहे सरकारी आंदोलनकारियों की लाइनें लंबी होती जा रही हैं। शौर्य,स्वाभिमान और निस्वार्थ त्याग की महान परंपराओं वाले समाज के अगुआ हिस्सों के लिए राजदरबार में नाक रगड़ते देखने का यह दारुण दृश्य हमारे ही दौर को देखना था और वह भी उत्तराखंड आंदोलन के 16 साल बाद ही! शहीदों! हम पहाड़ी समाज के अगुआ हिस्सों के इस पतन और स्वाभिमान हीनता के लिए शर्मिंदा हैं।
  • हमारे समाज के जागरुक और सोचने-समझने वाले लोगों ने यदि अपने छोटे-बड़े स्वार्थों के लिए अपनी अंतरात्मा और सामान्य विवेक को गिरवी न रखा होता तो राज्य बनने के दस सालों में एक राज्य के रुप में उत्तराखंड की ऐसी दुर्दशा नहीं हुई होती। पहाड़ों में भावी पीढ़ी क्वालिटी शिक्षा तो दूर सामान्य शिक्षा से भी महरुम है। विडंबना यह है कि जो शिक्षा सुविधायें उसे सन् 2000 से पहले उपलब्ध थी राज्य बनने के बाद वह भी बरकरार नहीं रह पाई। नये राज्य ने तो पहाड़ के आम लोगों के बच्चों के बीच अब गुदड़ी के लालों के उदय की दुर्लभ संभावनायें भी नष्ट कर दी हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता और स्तर भी राज्य बनने से पूर्व की स्थिति से भी खराब हो गई है।सरकारी तंत्र पहले कहीं ज्यादा गैर जिम्मेदार और गैर जवाबदेह हो गया है। 108 सेवा के जरिये सरकार ने मान लिया है कि हम पहाड़ों में बेहतर सुविधायें नहीं दे सकते उन्हे बस एंबुलेंस सेवा दे सकते। हैं। हर वह आदमी जिसकी माली हालत थोड़ी सी बेहतर है, पहाड़ छोड़ने लिए बेताब है। ऐसा लगता है कि हमने राज्य नहीं बनाया बल्कि भस्मासुर को जन्म दे दिया। सर पर हाथ रखने का नाटक कर यह राज्य उत्तराखंड के ही मूल निवासियों को भस्म करने पर उतारु है।

 

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

Uttrakhand News

              ‘‘जनपक्ष टुडे’’ का संघर्ष रंग लाया

‘‘दुनिया में कई ऐसे वाकये हुए हैं जिन्होने बताया कि तानाशाह सिर्फ सैनिक क्रांतियों के राजमार्ग से नहीं आते वे लोकतंत्र के चोर दरवाजे से भी आते हैं।प्रेस लोकतंत्र की रखवाली करता है इसलिए प्रेस की आजादी कई राजनेताओं को नहीं भाती। वे चाहते हैं कि प्रेस में उनकी जय हो की धुन गूंजती रहे।उत्तराखंड में हालांकि मीडिया में सरकार की जय हो की धुन बज रही हैफिर भी सरकार छोटे अखबारों पर लगाम लगााने पर आमादा है। सरकार ने जो सर्कुलर निकाले हैं वे विरोध की आवाज कुचलने के उसके इरादों की गवाही देते हैं। यही नहीं सूचना के अफसर थानेदार की तरह अखबारों से जवाब तलब कर रहे हैं। सूचना के प्रमुख सचिव प्रेस की आजादी कायम रखने के लिए चिंतित नहीं हैं वरन वे डीएमों को हिदायत दे रहे हैं कि सरकार के खिलाफ खबर न छपने पाए। सरकार का रवैया बता रहा है कि राज्य में प्रेस की आजादी खतरे में है।और अभिव्यक्ति की आजादी के रहनुमा पत्रकार संगठन, संपादक, लेखक, कवि और राजनीतिक दल सब खामोश होकर छोटे अखबारों का गला घोंटे जाता देख रहे हैं। इस घोष के साथ ‘‘जनपक्ष टुडे’’ ने अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी लगाए जाने के खिलाफ जो अभियान छेड़ा था वह कामयाब हो गया है। उत्तराखंड सरकार ने घोषणापत्र समेत उन सारे कदमों को वापस ले लिया है जो प्रेस की आजादी को प्रभावित करते हैं। ‘‘जनपक्ष टुडे’’ के उस अंक की झलक एक बार फिर ............

शनिवार, 4 सितंबर 2010

Uttarakhand News

Latest issue of weekly "Janpaksh Today "is in the newspaperstalls. Frredom of press is under threat in Uttrakhand" is lead story of  this issue. Weekly revealed that state Govt is trying hard to supress small papers of the state to keep mum on the scams. several journalists had been issued show cause notices by the state. Weekly had published all the Govt documents in this concern. Issue is in lime light and became hit.

Uttarakhand News

जनपक्ष टुडे   का नया अंक बाजार में आ गया है। इसमें उत्तराखंड सरकार द्वारा प्रेस पर लगाई जा रही पाबंदियों पर पूरी रिपोर्ट है।सरकार के खिलाफ खबर लिखने वाले पत्रकारों के उत्पीड़न और सरकारी दस्तावेजों के साथ खोजपूर्ण खबर है तो एक और भूमि घोटाले पर से पर्दा उठाया गया है।

सोमवार, 30 अगस्त 2010

Uttrakhand News

इंडिया टुडे का सर्वे निशंक के लिए झटका


 
 
 
 
 
 
  • कुंभ मेले के आयोजन पर भले ही भाजपा आलाकमान ने अपने मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की पीठ थपथपाई हो पर आलाकमान को साधने का यह मैनेजमेंट मंत्र जनता को नहीं साध पा रहा है। इंडिया टुडे का सर्वे बताता है कि न तो शुद्ध लोकप्रियता के मामले में वह राज्य के भीतर कोई कमाल दिखा पाए हैं और न राज्य के बाहर उनकी कोई पहचान बन पाई है।
  • हाल में लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को छोड़ दे ंतो उत्तराखंड के मुख्यमंत्री कई कारणों से चर्चा में रहे हैं। कभी वह कुंभ के आयोजन को लेकर चर्चा में रहे हैं तो कभी कुंभ के लिए उनका नाम नोबेल पुरुष्कार के लिए उछाले जाने के कारण चर्चा में रहा है। कभी वह अपने काव्य संग्रहों और उपन्यासों के जरिये मीडिया में छाए रहते हैं तो कभी पर्यटन पर किताब लिखने के लिए।मुख्यमंत्री की व्यस्तताओं के बीच उनका लिखने के लिए समय निकालना लोगों को चकित करता है। वह पत्रकार रह चुके हैं इसलिए बड़े अखबार और चैनलों के खबरनवीसों से उनकी काफी छनती है। उनके मीडिया मैनेजमेंट को अब तक का सबसे बढ़िया और महंगा मीडिया मैनेजमेंट माना जाता है। लेकिन इंडिया टुडे के सर्वे के नतीजे जो बता रहे हैं वे भाजपा के लिए अच्छी खबर नहीं हैं।उनका बेहतरीन मैनेजमेंट लोकप्रियता के आंकड़ों में नहीं बोल रहा।इसका सीधा अर्थ यह है कि मैनेजमेंट की ये सारी कवायदें वोटर के मन को जीत पाने में नाकाम हो रही हैं। जाहिर है कि चुनाव में मैनेजमेंट का कोई अर्थ नहीं है वहां तो वोटर का ही हुक्म चलेगा। वोटर के लिए इस बात का कोई मतलब नहीं है कि किस मुख्यमंत्री के खिलाफ खबर नहीं छपी या किस सरकार के खिलाफ न्यूज चैनलों में खबर नहीं आईं। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने बताया कि राज्य के लोग अखबार पढ़कर वोट नहीं देते और न उनके फैसले पर चैनलों का कोई असर होता है। इंडिया टुडे के सर्वे ने भाजपा के लिए चेतावनी जारी कर दी हैं। जनरल खंडूड़ी यदि भाजपा के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री बने हुए हैं तो यह उनकी छवि के चलते ही मुमकिन हो पाया है।ये नतीजे बताते हैं कि जिस तरह से प्रदेश में सत्ता विरोधी रुझान बढ़ रहा है उससे कोई चमत्कार ही भाजपा को बचा सकता है।

 

रविवार, 29 अगस्त 2010

Uttarakhand News

           बाबा जीते,उत्तराखंड हारा


                 उत्तरकाशी में लोगों में उबाल
                 रामदेव को चप्पल दिखाए

BY Rajen Todariya
आखिरकार जीडी अग्रवाल,गोविंदाचार्य, राजेंद्र सिंह, बाबा रामदेव समेत कथित पर्यावरणवादियों की साजिश कामयाब हो ही गई। लोहारीनाग पाला पनबिजली प्रोजेक्ट पर केंद्र को भाजपा के करीब रहे संतों और पर्यावरणवादियों के आगे समर्पण करना पड़ा है। केंद्र का यह फैसला उत्तराखंड के लिए जबरदस्त झटका है क्योंकि अब वह भटवाड़ी से आगे गंगा या उसकी सहायक नदियों पर कोई पनबिजली प्रोजेक्ट नहीं बना पाएगा क्योंकि केंद्र सरकार अपनी सीमाओं से बाहर जाकर एकतरफा रुप से ‘इको सेंसेटिव जोन’ घोषित करने जा रही है। यह पहला मौका है जब केंद्र सरकार ने किसी राज्य के खास इलाके में सीधे दखल दिया है। केंद्र के इस पैसले को लेकर उत्तरकाशी में जबरदस्त उबाल है। गुस्साए लोगों ने उत्तरकाशी गए बाबा रामदेव को चप्पल दिखाए और हजारों की भीड़ जमा हो गई । रामदेव को बचाने में स्थानीय पुलिस के पसीने छूट गए।
इस बीच पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने भी केंद्र के फैसले पर सख्त नाराजगी जताते हुए प्रधानमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष को पत्र लिखे हैं। पत्र में तिवारी ने इसकी कड़ी आलोचना करते हुए कहा है कि इससे उत्तराखंड के हितों को दूरगामी नुकसान पहुंचा है। तिवारी ने कहा कि इस फैसले से उत्तराखंड राज्य के औचित्य पर ही सवालिया निशान लग गया है। उन्होने कहा है कि पनबिजली प्रोजेक्ट उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था के आधार हैं। तिवारी ने पत्र में कहा है कि इससे उत्तराखंड और उत्तर भारत में गंभीर बिजली संकट पैदा होगा। इस फैसले को फौरन रद्द करने की मांग करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री ने मांग की है कि गंगा बेसिन अथॉरिटी की बैठक बुलाकर लोहारीनाग पाला, पाला मनेरी और भैरों घाटी प्रोजेक्टों पर तत्काल काम शुरु कराया जाय।
भले ही जीडी अग्रवाल, गोविंदाचार्य, राजेंद्र सिंह, बाबा रामदेव समेत नए-नए पर्यावरणवादियों को एक महीने से ज्यादा लंबे चले आंदोलन के दौरान आम लोगों का रत्ती भर समर्थन न मिला हो पर केंद्र सरकार आखिरकार संघ परिवार की प्रेरणा से चल रहे आंदोलन के आगे झुक ही गई। लोहारीनाग पाला पनबिजली प्रोजेक्ट को जिस तरह से केंद्र ने बंद किया है उससे कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। उत्तराखंड जनमंच ने इस मुद्दे पर जनता और हाईकोर्ट में जाने का ऐलान करते हुए केंद्र से सवाल किया है कि यदि पर्यावरण के लिहाज से यह परियोजना रोकी गई है तो फिर केंद्र ने पर्यावरण प्रभाव का आकलन किए बगैर ही इस योजना को हरी झंडी कैसे दे दी? यदि यह सच है तो इतने खतरनाक फैसले के लिए जिम्मेदार केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के उच्चाधिकारियों और राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ कार्रवाई की जाय। इस लापरवाही के लिए केंद्रीय ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे को इस्तीफा क्यों नहीं दें। इस प्रोजेक्ट पर 500 करोड़ रुपया खर्च हो चुका है। पाला मनेरी पर 120 करोड़ रुपया और भैरोंघाटी पर 31 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। केंद्र सरकार को अदालत से लेकर जनता के बीच यह जवाब देना होगा कि पर्यावरण प्रभाव का आकलन किए बगैर केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस प्रोजेक्ट को मंजूरी कैसे दे दी? सार्वजनिक धन की इस बर्बादी के लिए प्रधानमंत्री भी जवाबदेह हैं क्योंकि उन्ही की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने इस प्रोजेक्ट को मंजूरी दी। स्पष्ट है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ठोक बजाए बगैर ही सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करने की मंजूरी दे दी। यदि देश की सरकार इतनी कैजुअली काम कर रही है? इससे मनमोहन सरकार के कामकाज करने के तौर तरीकों पर सवाल उठने लाजिमी हैं। हैरत की बात यह है कि 500 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद केंद्र अब जाकर इस प्रोजेक्ट के पर्यावरण प्रभावों पर समिति गठित कर रहा है।
मंच ने कहा है कि केंद्र सार्वजनिक धन की बर्बादी करने वाले पर्यावरण मंत्रालय और ऊर्जा मंत्रालय के सचिवों समेत तमाम बड़े अफसरों के खिलाफ मामला दर्ज करे। मंच ने कहा है कि केंद्रीय कैबिनेट ग्राम पंचायतों से भी खराब तरीके से काम कर रही है। केंद्र के इस फैसले के बाद उत्तराखंड को भविष्य में जबरदस्त नुकसान होने जा रहा है। क्योंकि वह अब गंगा की सहायक नदियों पर भी प्रोजेक्ट नहीं बना पाएगा। निकट भविष्य में ऐसी ही मांग अलकनंदा और उसकी सहायक नदियों पर बनने वाले बांधों के खिलाफ भी होने वाली है। इस समय राज्य में चूंकि भाजपा की सरकार है इसलिए राज्य सरकार के प्रोजेक्टों पर साधुओं और जीडी अग्रवाल मंडली ने कोई सवाल नहीं उठाया है। परंतु अग्रवाल के करीबी रवि चोपड़ा पहले ही उत्तराखंड की नदियों पर पनबिजली प्रोजेक्ट बनाए जाने की मुखालफत कर चुके हैं। आशंका व्यक्त की जा रही है कि यदि राज्य में कांग्रेस या गैर भाजपाई सरकार आई तो भाजपा से सहानुभूति रखने वाले संगठन आंदोलन छेड़ देंगे। आंदोलनकारियों को मुख्यमंत्री का खुला समर्थन मिलने से जाहिर है कि यह एक लंबी रणनीति का हिस्सा है। अलबत्ता इतना जरुर है कि बिजली के जरिये अपनी अर्थवयवस्था बेहतर करने का सपना देख रहा उत्तराखंड कंगाल राज्य ही बना रहेगा और उसके आने वाले मुख्यमंत्री कटोरा लेकर केद्र के दरवाजे पर खड़े रहने की नियति झेलेंगे। उत्तराखंड के लोगों को इससे शिकायत भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि उन्होने जिन्हे नेता चुना है वे पहाड़ विरोधी मानसिकता वाले लोगों के आगे दंडवत कर रहे हैं। उत्तराखंड के पानी पर बाहरी ताकतों का हमला हो चुका है। पेड़ों के बाद अब पानी की बारी है जो छीना जाने वाला है। उत्तराखंड खामोश है पर क्षेत्रवाद के बबंडर की आहटें करीब आ रही हैं।


रविवार, 22 अगस्त 2010

                             नहीं रहे गिरदा

अपनी फक्कड़ी में बाबा नागार्जुन और जनांदोलनों में मगन होकर गाने की शैली में तेलुगू के क्रांतिकारी कवि गदर की याद दिलाने वाले महान जनकवियों की परंपरा के कवि गिरीश तिवारी गिरदा नहीं रहे। पहले 1977 का वनांदोलन और फिर 1984 का ‘‘नशा नहीं रोजगार दो’’ में गीत गर्जना करने वाले गिरदा उत्तराखंड आंदोलन के ऐसे स्वर रहे हैं जिनकी कविताओं में वह सपना बोलता था जिसके लिए पहाड़ की जनता को अलग राज्य चाहिए था। चार दशकों तक उत्तराखंड की पीड़ा और संघर्षों को आवाज देते रहे गिरदा का जाना हमारे वक्त की सबसे बड़ी त्रासदी है।


अभी पिछली 15 अगस्त को वह मिले थे। देहरादून के नगरनिगम के सभागार में। जब वह अपनी कविता ‘‘हो दिगो लाली’’ सुना रहे थे तो उनके हर बंध पर तालियां बज रही थीं। ऐसा लगता था कि जैसे लोग अपने इस महान जनकवि को उसके योगदान के लिए दिल की गहराईयों से श्रद्धांजलि दे रहे हों। उस दिन गिरदा अपने उस रंग में नही थे जिसके लिए वह जाने जाते हैं। लेकिन एक दिलचस्प वाकया भी उस समय हुआ जिस पर शायद ही लोगों का ध्यान गया हो। मुख्यमंत्री कवियों को शॉल भेंटकर सम्मानित कर रहे थे। इस सम्मान से दोहरे हुए जा रहे कई कवि मुख्यमंत्री के सामने गर्दनें लंबी किए बिछे जा रहे थे। पिछले कुछ सालों से झुके हुए कंधें और दोहरी हो रही कमर के साथ नजर आने वाले गिरदा मुख्यमंत्री के सामने तनकर खड़े थे और उन्होने शॉल पहनने के लिए अपनी गर्दन तक नहीं झुकाई। यह एक फक्कड़ कवि का सत्ता के सामने खड़े होने का अंदाज था। उस रात को नैनीताल लौटने से पहले थोड़ा सा समय उनके साथ बिताया। वह जब भी कवि सम्मेलनों में आते तो हमारी तीन-तीन बजे रात तक महफिलें चलती। हम बस मंत्रमुग्ध होकर उन्हे सुनते रहते और वह अपने बिंबों के अर्थ खोलकर बताते जाते। पर उस दिन जब मैने उन्हे पूछा कि वह किस होटल में ठहरे हैं तो उन्होने बताया कि वह फौरन ही वापस लौट रहे हैं और फिर आयेंगे तब जमकर बैठेंगे। लेकिन पता नहीं क्यों पहली बार मुझे लगा कि अब उनसे मुलाकात नहीं होगी। शनिवार को हल्द्वानी से ओपी पांडेय ने बताया कि गिरदा अस्पताल में भरती हैं और उनकी हालत नाजुक है। शाम को ओपी से फिर बात हुई तो उसने बताया कि ऑपरेशन सफल हुआ है। मुझे लगा कि मैं बेकार में ही आशंकित हो रहा था। गिरदा ठीक हो जायेंगे। फिर रविवार की सुबह राजेंद्र कोटियाल का फोन आया कि गिरदा नहीं रहे। मैं अवाक रह गया। गिरदा ऐसे जायेंगे कभी सोचा भी नहीं था। पिछली गर्मियों मंगलेश डबराल समेत कई साथियों ने उनसे अपनी कवितायें और गीत रिकॉर्ड कराने को कहा पर सदा की तरह वह टाल गए।
10 सितंबर 1943 में अल्मोड़ा के करीब ज्योली गांव में जनमे गिरदा ने भारत सरकार के गीत और नाट्य प्रभाग से संस्कृतिकर्मी की अपनी यात्रा शुरु की। लेकिन वह कभी उसकी सीमाओं में बंधे सरकारी रंगकर्मी नहीं रहे। चिपको आंदोलन के दौर में जब वह दोनों हाथ लय और तरंग के साथ लोगों का आह्वान करने की मुद्रा में ‘‘ आज हिमाल तुमन कै धत्यूं छो ’’ गाते थे तो लगता था जैसे साक्षात हिमालय अपने पहाड़ी बेटे-बेटियों को आवाज दे रहा हो। जिन लोगों ने उस दौर में गिरदा को गाते हुए देखा-सुना हो वे जान सकते हैं कि किस तरह से एक जनकवि जुलूसों को ही नहीं बल्कि किनारे खड़े उन तटस्थ लोगों को भी मंत्रामुग्ध करता है। 1984 के शराब विरोधी आंदोलन के दौर में गिरदा फैज की विश्वविजयी गजल,‘‘ दरबार ए वतन में’’ की ‘जब तख्त गिराए जायेंगे/ जब ताज उछाले जायेंगे’’ पंक्तियां गाते थे तो महसूस होता था कि वाकई ताजो-तख्त उछाले जा रहे हों। यह गिरदा की ताकत थी कि वह सड़क पर चलते हुए भी आपको क्रांति की अपनी दुनिया में ले जा सकते थे। आप महसूस कर सकते थे कि आपके भीतर भी बदलाव की अनगिनत बेचैन लहरें ठाठें मार रही हैं जिन्हे जगाकर गिरदा आपको सराबोर कर डालते थे। आज भी जब वह पहाड़ की एक शाम का चित्र उतारती अपनी कविता, ‘‘ ओ दिगो लाली’’ गाते हैं तो पहाड़ का गांव जैसे एक काव्य फिल्म की तरह सामने चलने लगता है। उनकी कविता क्रांति के रूपहले संसार में भी ले जाती है तो लोकजीवन में भी। वह लोकजीवन के अद्भुत बिंबों के कवि हैं। पर गिरदा सिर्फ कंठ और शब्द के कवि नहीं थे। कविता उनकी पूरी देह में बोलती थी। कविता का हर शब्द उन्हे झंकृत करता और गाते हुए वह उसमें डूबकर विदेह हो जाते। ठीक उसी तरह जैसे जागर सुनते हुए एक अदना सा आदमी पुराकथाओं के देवता में बदल जाता है। वह क्रांति के कवि थे और जीवन भर उसी की साधना करते रहे।
उत्तराखंड की सख्त, खुरदरी और उबड़-खाबड़ जमीन कविता के लिए सदा ही उर्वरा रही है। हो सकता है कि कठिन जीवन कविताओं के लिए ज्यादा मुफीद हो आप चाहें तो देवभूमि होने के कारण इसे दिव्य संयोग भी कह सकते हैं। पहले कविताओं की यह प्रतिभा उन बाजगियों के हाथ में थी जिन्हे हिंदू सवर्णवाद ने दलित बना दिया। वे दलित ही दरअसल उत्तराखंड की काव्य परंपरा के असली पुरखे हैं। देवताओं के जागर से लेकर पांडवों के वृतांतों तक कविता और संस्कृति जो भी धरोहर है वह उन्ही अछूत बना दिए गए महान कवियों और संगीतकारों के मुख से निकली है। उत्तराखंड में साहित्य और संगीत के ब्रह्मा वही रहे हैं। प्रमुख घटनाओं और त्रासदियों पर गीत रचनेे की वाचिक परंपरा को भी उन्होने ही आगे बढ़ाया। उन्हे सवर्णों ने भले ही बेड़ा, बद्दी पुकार कर हेय दृष्टि से देखा हो पर वे अद्भुत कवि और गीतकार थे जो किसी भी घटना पर गीत रच सकते थे। उत्तराखंड में आंदोलनों का जितना लंबा इतिहास रहा है उतना ही लंबा इतिहास आंदोलन की कविताओं और गीतों का भी है। आजादी के दौर में ब्रिटिश विरोध की कविताओं को लेकर गौर्दा ने जनकवियों की आधुनिक परंपरा का श्रीगणेश किया पहली बार इसे वामपंथी तेवर देते हुए गुणानंद पथिक ने गले पर हारमोनियम डालकर कविता को जनता के आंदोलनकारी हथियार में बदल दिया। उनकी इस परंपरा को सर्वोदयी मद्यनिषेध, पशुबलि विरोधी आंदोलनों और चिपको आंदोलन में लोककवि घनश्याम सैलानी ने आगे बढ़ाया।गिरदा जनकवियों की इसी पांत के कवि थे। यह काव्य धारा भी उसी गंगोत्री से निकली जिससे गौर्दा, गुणानंद पथिक और घनश्याम सैलानी की धारायें निकली हैं।उत्तराखंड में जब-जब बदलाव का सपना देखने वाले आम लोग आंदोलन करेंगे गिरदा उनकी आत्माओं में जाकर बोलेंगे। गिरदा जिंदा रहेंगे। उनके शब्दों में,‘‘ उस दिन हम नहीं होंगे साथी/पर वह दिन हमारे लिए होगा।’’

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

Uttarakhand News
वाटरलू से कम थोड़े ही है श्रीनगर में अगला चुनाव

श्रीनगर से सत्यप्रसाद मैठाणी
प्रदेश के मुख्यमंत्री डा0रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा श्रीनगर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद से श्रीनगर विधानसभा सीट हॉट सीट बन गयी है। इस विधानसभा से चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ ही निशंक इस क्षेत्र को लेकर खासे गंभीर दिख रहे है। अपने एक साल के कार्यकाल मे मुख्यमंत्री क्षेत्र के पांच से अधिक दौरे कर चुके है। जिसमें उन्होने विकास योजनाओं की घोषणाओं की झड़ी लगा दी है। श्रीनगर में लड़ी जाने वाली यह लड़ाई सन् 1815 में बेल्जियम के वाटरलू में फ्रांस के सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट और सप्तम गठबंधन के बीच होने वाले ऐतिहासिक युद्ध से कम नही है। वाटरलू विश्व के ऐतिहासिक युद्धस्थलों में से एक रहा है। नेपोलियन जब दूसरी बार सत्ता में लौटा तो माहौल उसके खिलाफ था। फ्रांस के अध्ीनस्थ प्रशिया,रुस समेत कई राज्यों ने उसकी मुखालफत की और उसके खिलाफ एक गठबंधन बनाया और इसे इतिहास में ‘‘सेवंथ कोएलियेशन’’ के नाम से जाना गया। वेलिंगटन के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना और सप्त गठबंध्न की सेनाओं के साझा हमले से नेपोलियन हार गया। उसे ताउम्र सेंट हेलेना द्वीप में निर्वासन का दंड झेलना पड़ा। कहा जाता है कि अति आत्मविश्वास, प्रतिकूल मौसम और विरोधियों की एकजुटता के कारण नेपोलियन की हार हुई। बेहतर सैन्य साजोसामान से लैस, दुनिया की सबसे बेहतर और प्रोफेशनल सेना के बावजूद विश्व इतिहास के इस बेहतरीन सेनापति को इन तीन कारकों ने पराजय के लिए मजबूर कर दिया। श्रीनगर का भूगोल थोड़ा बहुत वाटरलू से मिलता है पर इसकी राजनीति बड़े से बड़े नेता को 295 साल पुराने वाटरलू की याद दिलाने की हैसियत रखती है। कोई चार सदी पहले जब यह कस्बा जब गढ़वाल के राजा की राजधनी था तब इसने राजनीति का पहला सबक सीखा था। हालांकि तब से आज तक अलकनंदा में कापफी पानी बह चुका है पर श्रीनगर की राजनीति अब भी राजनेताओं और राजनीतिक विश्लेषकों के लिए अबूझ और अगम्य बनी हुई है। यह लंबे समय से बु(िजीवियों का गढ़ बना हुआ है। गढ़वाल विवि आंदोलन समेत कई आंदोलनों का यह केंद्र रहा। राजनीति की चकरा देने वाली गलियों वाले श्रीनगर से यदि मुख्यमंत्राी ने चुनाव लड़ने का ऐलान किया है तो जाहिर है कि उन्होने उन सारे जोखिमों को टटोल लिया है जो सहां से चुनाव लड़ने के कारण पैदा हो सकते हैं। इसे राजनीति के बिसात पर उनके बढ़े हुए आत्मविश्वास का संकेत भी माना जाना चाहिए। ऐसा इसलिए भी है कि वह इस बिसात पर लगभग अजेय माने जाने वाले जनरल खंडूड़ी को चित कर चुके हैं। श्रीनगर विधानसभा क्षेत्र पर मुख्यमंत्री के फोकस का का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अपने एक साल के कार्यकाल में वे यहां पर खुले हाथों से विवेकाधीन कोष के आधा करोड़ से अधिक की धनराशि बांट चुके हैं। स्पर्श गंगा के बहाने वह यहां अपने नौजवान समर्थकों की एक पल्टन खड़ी करने में भी कामयाब रहे हैं। यही नहीं अपने एक साल के कार्यकाल के दौरान निशंक ने क्षेत्रीय जनता को यह विश्वास दिलाने का भरसक प्रयास किया है कि वह क्षेत्र के विकास को लेकर गंभीर हैं।साफतौर पर इसके पीछे श्रीनगर से चुनाव लड़ने का उनका इरादा झलकता है। मुख्यमंत्री के रुप में एक साल का कार्यकाल पूरा होने के मौके पर आयोजित प्रेस वार्ता में भी डा0 निशंक ने अपनी बड़ी उपलब्धियों में श्रीनगर में हुए विकास कार्यों को अधिक तवज्जो दी। गढ़वाल विवि को केंद्रीय विवि का दर्जा दिलाने के श्रेय पर वह अपना दावा ठोंक ही चुके हैं तो विवि शिक्षकों और कर्मियों को छठा वेतनमान देने पर तो उनका दावा है ही। हालांकि एनआईटी और श्रीनगर सौंदर्यीकरण,जीएनटीआई मैदान में स्टेडियम का निर्माण,मैरीन ड्राइव, जैसे निर्माणों को पूरा करना उनके लिए चुनौती हैं पर मुख्यमंत्री होने के नाते वह इन सबको अंजाम देने कूव्वत रखते हैं। उनके समर्थक उन्हे इस सीट से प्रतिनिधि देखना चाहते हैं। मुख्यमंत्री के श्रीनगर विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद श्रीनगर राजनीति में भी गरमाहट आ गई है। आलम यह है कि नगरपालिका अध्यक्ष कांग्रेस के होने के बावजूद भी उन्हें श्रीनगर सीट से चुनाव लड़ने का न्यौता दे चुके हैं। हालांकि भाजपा के संगठनात्मक चुनाव में खंडूड़ी लॉबी के हावी रही है। खंडूड़ी फैक्टर आगे चलकर निशंक के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि डा0निशंक विरोधियों को काबू में करने के वाले वशीकरण मंत्र के उस्ताद हैं। माना यह जा रहा है यदि वह श्रीनगर से चुनाव लडे़ तो शायद उन्हें अपने पुराने प्रतिद्वंदी गणेश गोदियाल से टक्कर लेनी पड़े। उनके पास मुख्यमंत्री का तमगे के साथ सरकार का बल भी होगा। ऐसे में श्रीनगर का समर उनके लिए केक वॉक भी हो सकता है। लेकिन विरोध्यिों की एकजुटता,सत्ताविरोध्ी रुझान और जनरल खेमे का असहयोग मिलकर इसे उनके लिए वाटरलू बना सकते हैं। इस वाटरलू में वह नेपोलियन साबित होंगे या पिफर विजयी वेलिंगटन सि( होंगे, यह पफैसला तो समय और राजनीति की पंडित श्रीनगर की जनता ही करेगी।

बुधवार, 18 अगस्त 2010

In the headlines

                    गजब के हरक ! हरक का गजब !!

  • वह शायद 1990 के आसपास की बात रही होगी तब आज के प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत गढ़वाल विश्वविद्यालय में शिक्षक थे लेकिन वह राजनीति को अपना पेशा बना चुके थे। उनके पास एक स्कूटर हुआ करता था। उस स्कूटर की ड्राइविंग सीट पर हरक सिंह होते थे और उनें पीछे की सीट पर आज के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक हुआ करते थे। लेकिन वक्त ने करवट बदली और उनके स्कूटरिया यार निशंक को भाजपा आलाकमान ने उत्तराखंड को चलाने का जिम्मा सौंप दिया। हरक सिंह के पास विधानसभा के भीतर कांग्रेस को चलाने का भार है। पहले तो यह बात भाजपा और कांग्रेस के भीतर खुसफुसाहट के रुप में कही जा रही थी अब जबकि हरक सिंह स्वीकार कर चुके हैं कि उनके और मुख्यमंत्री के बीच एक गुप्त संधि थी तब जाकर साफ हुआ कि मुख्यमंत्री के स्कूटर की पीछे की सीट पर कोई और नहीं विपक्ष के नेता बैठे हैं।स्कूटर वाली दोस्ती कायम है। इसे कहते हैं सच्ची और शोले वाली दोस्ती! सीटें बदल गईं पर दोस्ती नहीं बदली। प्रदेश हैरान है कि मुख्यमंत्री और विपक्ष के नेता एक ही स्कूटर पर सवार होकर फिल्म शोले के जय और वीरु की तरह गा रहे हैं, ‘‘ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे, तोड़गें दल पर तेरा साथ ना छोड़ेंगे।’’ कहते हैं कि मुख्यमंत्री आवास में एक कमरा वीरु के लिए आरक्षित है पर कहने वाले इसे कमरा नहीं कांग्रेस के लिए मकबरा भी कहते हैं।उत्तराखंड में फिल्माई जा रही इस शोले में जय और वीरु की दोस्ती का एक कारण यह भी है कि दोनों के अपने- अपने गब्बर भी हैं। एक को जनरल गब्बर लगते हैं तो दूसरे को हरीश रावत। गब्बरों को निपटाना है तो जय-वीरु की दोस्ती जरुरी है।
  • पौड़ी विधानसभा क्षेत्र से राजनीति शुरु करने वाले हरक सिंह रावत राजनीति के उस्ताद माने जाते। पहले मनोहर कांत ध्यानी फिर बीसी खंडूड़ी की उंगली थाम कर भाजपा की राजनीति में ऐसे जमे कि भाजपा के भीतर कईयों को उनसे खतरा महसूस होने लगा। बीजेपी की नई पीढ़ी के नेताओं में उन्होने सबको पीछे छोड़ दिया। उनकी महत्वाकांक्षाओं को भांप रहे नेताओं ने उन्हे भाजपा से बाहर करवा दिया।भाजपा से निकलकर उन्होने सतपाल महाराज की उंगली थामी और 1996 के लोकसभा चुनाव में उनकी सोशल इंजीनियरी और चुनावी तिकड़मों ने मिलकर भाजपा के जनरल को चित कर दिया। सतपाल महाराज को राजनीति में भी चेले चाहिए या फिर भक्त। वह खुद ही गढ़वाल में ठाकुर राजनीति के पोप होना चाहते थे इसलिए दूसरे पोप को कैसे बर्दाश्त करते? पर हरक सिंह राजनीति में महाराज का संप्रदाय बनाने तो नहीं आए थे। वह गढ़वाल विवि की शिक्षक राजनीति के गुरुकुल में प्रशिक्षित थे। गुरु को गुड़ बनाए रखने व खुद शक्कर बन जाने की टेक्नोलॉजी में दक्ष हरक सिंह सतपाल के कंधे पर सवार होकर राजनीति में लंबी छलांग मारने को आतुर थे। लिहाजा यह हिट जोड़ी भी टूट गई। हरक सिंह बसपा में गए और वहां भी उन्होने अपना लोहा मनवाया। एक दशक से ज्यादा समय तक राजनीति में घुमक्कड़ की तरह इधर उधर आते जाते रहे हरक जब कांग्रेस में पहुंचे तो वहां उन्होने डेरा जमा लिया। वहां उनकी धूनी ऐसी जमी कि वह कई दशकों से कांग्रेस की राजनीति कर रहे दिग्गजों को पछाड़ते हुए न0 2 हो गए।अदम्य महत्वाकांक्षा और दबंग राजनीति हरक की राजनीति की बुनियादी ताकत है। अपने समर्थकों के लिए किसी से भी भिड़ जाने की उनकी खासियत से ही उनके पास कुछ कर गुजरने वाले समर्थकों की पल्टन है। राजनीति की यह खासियत ही उनकी सीमा भी है।उनके विरोधी भी उतने ही कट्टर हैं जो किसी भी कीमत पर उन्हे आगे नहीं आने देना चाहते। इसीलिए विवादों से उनका पुराना नाता रहा है। पटवारी भर्ती कांड, जेनी कांड समेत कई विवादों से घिरे हरक अब भूमि घोटाले में घिर गए हैं। इतना तय है कि इससे वह बेदाग बाहर नहीं आ सकते। पर इस घपले के उछाले जाने से नाराज उनके करीबी हरीश रावत खेमे पर उंगली उठा रहे हैं। उनका कहना है कि मुख्यमंत्री के सबसे तगड़े दावेदार माने जा रहे हरक सिंह रावत को दौड़ से बाहर करने के लिए इसे उछाला गया है।यह घपला तो निर्णायक साबित हो ही सकता है पर हरक ने निशंक के साथ संधि होने की बात स्वीकार कर अपने पैर में खुद ही कुल्हाड़ी मार ली है।मुख्यमंत्री को लेकर उनके रवैये पर पहले ही कांग्रेस में सवाल उठते रहे हैं।इससे वह और भी ज्यादा घिर गए हैं। पार्टी में पहले ही उन पर सवाल उठता रहा है कि वह विधानसभा के भीतर नहीं बल्कि बाहर ज्यादा एक्टिव रहते हैं।अपने ही बयान से मुश्किल में फंसे हरक की घेराबंदी कांग्रेस में होने लगी है।उनके बयान की प्रति आलाकमान तक पहुंचाई जा चुकी है।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

Uttrakhand Police

असंतोष से सुलग रही हैं पुलिस की निचली कतारें


सहसपुर के विधायक की पिटाई को लेकर राजनीतिक रुप से खूब हंगामा मचा और पूरे शहर में यह चर्चा आम रही कि इस कांड के पीछे का सूत्रधार कोई और है। लेकिन इस कांड के पीछे कौन था, यह सच शायद ही कभी सामने आ पाएगा।
सहसपुर के विधायक राजकुमार की पिटाई को लेकर सत्तापक्ष के विधायकों और लालबत्तीधारकों ने खूब हल्ला मचाया और इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री को इस कदर घेरा कि लगा जैसे एक खेमे विशेष के विधायक इस मामले पर बगावत कर देंगे। इन विधायकों और नेताओं का तर्क था कि जब राज्य में विधायक ही सुरक्षित नहीं है तब आम आदमी के प्रति पुलिस का रवैया क्या रहता होगा? दिलचस्प बात यह है कि विधायक की पिटाई को लेकर जितनी एकजुटता विधायकों ने दिखाई उतनी एकता एक बार भी इन्होने तब नहीं दिखाई जब बाहरी लोगों के लिए प्रदेश में रोजगार के दरवाजे खोल दिए गए। इस हल्ले से राज्य के नेताओं का चरित्र उजागर हो गया। मजेदार बात यह है कि इस किस्से को लोगों ने चटखारे लेकर सुना और आम लोगों इसे लेकर पुलिस के खिलाफ नाराजगी नहीं देखी गई अलबत्ता लोग हैरान जरुर थे कि जो पुलिस विक्रम और थ्री ह्वीलर वालों के हाथों पिटती रही हो उसने विधायक को कैसे पीट दिया?
घटनास्थल के आसपास के लोगों के जरिये जो खबरें छनकर आईं उसके अनुसार विधायक के ड्राइवर ने दारोगा के साथ बदतमीजी की और उसके बाद विधायक ने उसे गाली दी। जिससे नया-नया आया दारोगा भड़क गया। भाजपा के कुछ नेताओं के अनुसार विधायक की पिटाई उच्चस्तर से मिले निर्देशों के आधार पर अंजाम दी गई। अपनी कहानी को सच बताते हुए इन नेताओं का कहना है कि इसीलिए तत्कालीन एसएसपी को प्रमोशन दिया गया। उनका दावा है कि राजकुमार चूंकि भाजपा के एक खेमे विशेष से जुड़े हैं इसलिए उन्हे काबू में रखने के लिए इस कांड को अंजाम दिया गया।
यह घटना पुलिस के भीतर नेताओं के खिलाफ बढ़ रहे असंतोष की बानगी है। पुलिस के उच्चस्तरीय सूत्रों का कहना है कि प्रदेश में पुलिस के रोजमर्रा के कामों में हस्तक्षेप सभी सीमायें पार कर चुका है। उनका कहना है कि कालाढुंगी कांड ने अति राजनीतिक हस्तक्षेप से पैदा होने वाले खतरों पर चेताया था पर सरकार ने इस चेतावनी को अनसुना कर दिया। पुलिस के इन सूत्रों का दावा है कि पुलिस की निचली कतारों में हालात बेहद खराब हैं। बड़े नेताओं से लेकर छुटभये तक सिपाहियों, दारोगाओं और थानेदार स्तर तक के पुलिसवालों को आए दिन सार्वजनिक रुप से अपमानित करते रहते हैं। नेताओं की देखादेखी अब आम लोग भी पुलिसवालों को हड़का कर चल देते हैं। सूत्रों ने बताया कि कुछ विधायक तो पुलिसवालों से गालीगलौच से नीचे बात ही नहीं करते। उनका कहना है कि पुलिस के साथ बदसलूकी की घटनाओं का यह सिलसिला कोतवाल एमएस नेगी को हटाए जाने के बाद शुरु हुआ और अब यह रोग पूरे राज्य में फैल चुका है। उनका कहना है कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद तो राजनीतिक हस्तक्षेप महामारी का रुप ले चुका है। इस बीच यह भी चर्चा आम रही कि कुछ और विधायकों की भी पिटाई किए जाने के आसार हैं। बताया जाता है कि ऐसे पांच विधायक हैं जिनकी बदसलूकी से पुलिस परेशान है। इनमें दो विधायक देहरादून के हैं तो एक कुमाऊं का और दो गढ़वाल के हैं। सूत्रों का कहना है कि यदि जल्द ही पुलिस में निचले स्तर पर फैले असंतोष को दूर नहीं किया गया तो कभी भी कोई चिंगारी कालाढुंगी कांड से भी बड़े कांड को अंजाम दे सकती है।

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

सरकार ने किया लोकायुक्त का अपमान

उत्तराखंड सरकार किस अंहकार और दंभ के साथ काम कर रही है उसका अनुमान हाल ही में उपलोकायुक्त के पद पर की गई नियुक्ति से हो जाती है। उपलोकायुक्त के पद पर पुष्पा भट्ट की नियुक्ति के बारे में लोकायुक्त को सूचना तक देने का शिष्टाचार निभाने की जरुरत राज्य सरकार ने नहीं समझी। संवैधनिक पद पर बैठे व्यक्ति का इस तरह से अपमानित किए जाने की यह पहली घटना है। इस घटना से लोकायुक्त आहत हैं और उन्होने सरकार के रवैये पर अपनी नाराजगी जता दी है। संकेत मिले हैं कि लोकायुक्त इस नियुक्ति को खारिज कर सरकार को शर्मिंदा कर सकते हैं ।

किसी भी नए राज्य या राष्ट्र के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात यह होती है कि उस पर राज करने वाले राजनेता, अफसर और न्यायाधीश कितनी उदार और महान परंपरायें डालते हैं। यदि एक राष्ट्र के रुप में संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका समेत संवैधानिक संस्थाओं में जो अच्छी परंपरायें हमें आज नजर आती हैं वे इसलिए भी हैं कि आजादी के बाद केंद्र में सत्तारुढ़ होने वाले नेताओं में नेहरु समेत कई ऐसे उदार और लोकतांत्रिक और सचमुच के बड़े नेता मौजूद थे जिन्होने लोकतंत्र की बुनियाद को शानदार परंपराओं के आधार पर खड़ा करने की कोशिश की। भारत परंपराओं का आदर करने वाला देश है। हमारे समाज और देश में लोकतांत्रिक और सामाजिक शिष्टाचार की कई शानदार रस्मंे किसी लिखित आचार संहिता से नहीं बल्कि परंपराओं से निकली हैं।
एक अद्भुत, विचारवान संघर्ष की प्रसव पीड़ा से जनमे उत्तराखंड को लेकर यह उम्मीद की जाती थी कि वह एक पहाड़ी रंग के मिजाज की राजनीति देकर देश को रास्ता दिखायेगा। उत्तराखंड की विधानसभा और उसके राजनेता यह नहीं कह सकते कि उनकी राजनीति में उत्तराखंड के पहाड़ी समाज की कोई विशेषता है उल्टे वह इस नए नवेले प्रदेश को यूपी की राजनीति का घटिया और भ्रष्ट संस्करण बनाने में जरुर कामयाब रहे हैं। लेकिन नई और अच्छी लोकतांत्रिक परंपरायें शुरु करना तो दूर उत्तराखंड की सरकार लोकतांत्रिक और संवैधानिक मर्यादाओं को भी नष्ट-भ्रष्ट कर रही है। राजनीतिक हस्तक्षेप ने पुलिस की इतनी दुर्गति कर दी है कि उसकी हालत होमगार्डों से बदतर हो गई है। सरकार का हर विभाग तो राजनीतिक हस्तक्षेप से तो त्रस्त है ही पर अब हालत यहां तक पहुंच गई है कि लोकायुक्त जैसी संवैधानिक संस्था पर भी उसने हमला बोल दिया है। हाल ही में राज्य सरकार ने एक उपलोकायुक्त की नियुक्ति की। लेकिन नियुक्ति से पहले उसने लोकायुक्त से सलाह लेना तो दूर उसे सूचित करने का शिष्टाचार तक नहीं निभाया। इससे सरकार में बैठे लोगो और नौकरशाही का अहंकार और दंभ उजागर हो जाता है। यह न केवल एक संवैधानिक पद पर बैठे हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस का अपमान था बल्कि लोकायुक्त एवं उपलोकायुक्त एक्ट की धारा तीन बी का सीधा उल्लंघन है जिसमें कहा गया है कि सरकार को उपलोकायुक्त पद पर नियुक्ति करने से पूर्व लोकायुक्त से विचार विमर्श करना होगा। एक्ट के अनुसार ऐसा करना स्वैच्छिक नहीं बल्कि बाध्यकारी है। एक्ट से यह साफ है कि वह सरकार को राय मांगने की औपचारिकता भर निभाने की छूट नहीं देता। बल्कि इसमें कंसल्टेशन शब्द का इस्तेमाल किए जाने से जाहिर है कि लोकायुक्त की सहमति और सम्मति के बिना सरकार उपलोकायुक्त की नियुक्ति नहीं कर सकती। संविधान विशेषज्ञों के अनुसार लोकायुक्त की सलाह के बिना सरकार द्वारा की गई नियुक्ति अवैध है और लोकायुक्त इसे मानने को बाध्य नहीं हैं। साथ ही ऐसी नियुक्ति पर हस्ताक्षर करने से राज्यपाल भी इंकार कर सकते हैं। सूत्रों का दावा है कि अपने साथ किए गए अपमानजनक सुलूक से नाराज लोकायुक्त सरकार के प्रस्ताव को ठुकराने के मूड में हैं।
हैरानी की बात यह है कि अखबारों में उपलोकायुक्त पद पर नियुक्ति की सार्वजनिक घोषणा समाचार माध्यमों में किए जाने के तीन दिन बाद सरकार ने बैक डेट का एक पत्र भेजकर लोकायुक्त से राय मांगने की औपचारिकता पूरी करने की कोशिश की है। विधि विशेषज्ञ हैरत में है कि सरकार एक संवैधानिक पद पर बैठे पूर्व जस्टिस को रबर स्टैंप बनाने की हद तक कैसे चली गई। उनका मानना है कि सरकार के पास विधि विभाग से लेकर एडवोकेट जनरल तक कानून में माहिर लोगों की पूरी टीम है इसलिए यह अनजाने में उठाया गया कदम नहीं है बल्कि जानबूझकर किया गया है। क्योंकि नियुक्ति की फाइल जब चली होगी तभी उसके सारे प्रावधानों पर विचार कर लिया गया होगा। उनका कहना है कि लोकायुक्त एक्ट की धारा 16 में जानबूझकर किए गए अपमान के खिलाफ लोकायुक्त जिम्मेदार अफसर के खिलाफ मामला दर्ज कर सकते हैं। कानून को ठेंगे पर रखने की सरकार की यह हरकत तब और भी गंभीर हो जाती है जब उस पद पर जस्टिस घिल्डियाल जैसा सीधा- सच्चा और विवादों से दूर रहने वाला व्यक्ति बैठा हो। लोकायुक्त के अपमान की यह घटना संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट करने की शर्मनाक कोशिश है।



सोमवार, 9 अगस्त 2010

महंगाई पर नीति में नहीं नीयत में खोट




महंगाई पर संसद में जबरदस्त बहस और केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बयान के बावजूद मंहगाई की इस अंधी सुरंग से निकलने का कोई रास्ता निकलता नहीं दिख रहा। राजनीति की भूलभूलैया में यह मुद्दा बस बहस में ही समाप्त होकर रह गया। इस पूरी बहस से इतना तो पता चल ही गया कि महंगाई के मुद्दे पर राजनीतिक दलों की नीयत साफ नहीं है। सोनिया गांधी की गरीब फ्रैंडली मुद्रा के बावजूद इस समस्या की जड़ें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उस कुलीन आर्थिक राजनीतिक अवधारणा में है जो गरीब विरोधी और देश के सामाजिक आर्थिक ढंचे को तहस नहस कर देने वाली है।
 प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईमानदार और बेदाग प्रधनमंत्री के खिताब से नवाजे जाते रहे हैं। उनकी इस ईमानदारी के बावजूद कांग्रेस संसदीय चुनावों के लिए कई हजार करोड़ जुटाने में कामयाब रही। जाहिर है कि यह पैसा उस आम आदमी ने नहीं दिया जिसके साथ कांग्रेस हाथ होने की बात कही जा रही थी। यह पैसा उन लोगों ने दिया है जो इस देश को बाजार अर्थव्यवस्था के हिसाब से चलाने की आजादी चाहते हैं ताकि उनका मुनाफा कुलांचे भरता रहे। कहीं महंगाई का यह दौर उसी वर्ग के चुनावी कर्ज उतारने से तो नहीं पैदा हुआ। कांग्रेस के लोग इससे असहमत हो सकते हैं पर मंहगाई पर केंद्र जिस तरह से हाथ पर हाथ धरे हुए बैठा है उससे क्या इस आरोप का औचित्य साबित नहीं होता। इस पूरे प्रकरण से उन लोगों की आंखे खुल जानी चाहिए जो प्रधानमंत्री की ईमानदारी के कसीदे पढ़कर इसे कांग्रेस को वोट देने का सबसे बड़ा कारण बता रहे थे। साफ है कि व्यक्तिगत ईमानदारी का सवाल राजनीति में बहुत मायने नहीं रखता। भ्रष्टाचार के तंत्र को फलने-फूलने की आजादी देने वाला एक ईमानदार आदमी भी भ्रष्ट व्यवस्था के शिखर पर जमे रह सकता है। एक जनविरोध्ी तंत्र को भी अपनी साख बनाए रखने के लिए कुछ साफ सुथरा चेहरों की जरुरत होती है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के जिस आदमखोर पशु से हमारा पाला पड़ा है उसके सिद्धांतकारों में मनमोहन सिंह समेत कई ईमानदार और समर्पित हस्तियां हैं। लोकसभा में सुषमा स्वराज और राज्यसभा में अरुण जेटली ने इशारों- इशारों में इसे कहा भी। महंगाई के गणित के सूत्र मनमोहन के आर्थिक विकास दर वाले अर्थशास्त्र से भी निकलते हैं। लेकिन बीमारी सिर्फ इतनी ही नहीं है बल्कि इससे ज्यादा गंभीर और चिंता में डालने वाली है। विदेशी स्वामियों को खुश करने के लिए भारत सरकार ने उदारीकरण और भूमंडलीकरण के रास्ते को चुनने में वे मूलभूत सावधानियां भी नहीं बरतीं जो अमेरिका समेत सभी विकसित देशों ने बरती।
 यह ऐसा देश है जिसके पास बाजार का नियमन करने के लिए न कड़े उपभोक्ता कानून हैं और न ही कोई नियामक संस्था। लाइसेंस राज तो खत्म हो गया लेकिन बाजार का अंधेर राज कायम कर दिया गया। आज एक आम आदमी के पास अनुचित मूल्य या घटिया सामग्री का प्रतिकार करने के लिए कोई प्रभावी तंत्र नहीं है। आम उपभोक्ता बाजार में असहाय और दयनीय आदमी है जिसके पास व्यापारी की बात मानने और जेब से दाम चुकाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उसके पास यह जानने का न साधन है और न अधिकार कि वह जो खरीद रहा है उसका लागत मूल्य कितना है। वह समझ पाने में असमर्थ है कि एक ब्रांड की मुहर लगने मात्रा से किसी वस्तु का दाम कैसे 500 से 700 गुना तक बढ़ जाता है। उसके पास नकली सामान, प्रदूषित और खतरनाक खाद्य पदार्थों से बचने का कोई रास्ता नहीं है। उसका सामना हर रोज ऐसे सर्वशक्तिमान और स्वेच्छाचारी बाजार से होता है जो देश के कानूनों से ऊपर एक संविधानेतर और संप्रभु सत्ता है। स्पष्ट है कि भारत की सरकार और भारतीय राज्य की सहमति के बिना देश में ऐसी असंवैधानिक सत्ता नहीं चल सकती। भारतीय बाजार का कोई तर्कशास्त्र नहीं है। वहां जंगल राज है।उसमें एक ओर बिना मांग के ही दामों को कई गुना बढ़ाने वाला सट्टा बाजार है तो दूसरी ओर मुनाफाखोरी में माहिर देशी रुप से विकसित ऐसा आढ़त बाजार है जिसमें भाव अकारण ही कई गुना बढ़ा दिए जाते हैं। आम लोगों तक कभी यह जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती कि खाद्यान्न वायदा कारोबारियों ने सिर्फ सट्टबाजी कर साल भर में कितने हजार करोड़ रुपए बना लिए या आढ़तियों के तंत्र ने सिर्फ दामों की हेराफेरी कर साल भर में कितना मुनाफा कमाया। जाहिर है कि सरकार नहीं चाहती कि लोग कभी यह जान पायें कि अनाज का एक दाना पैदा किए बिना ही कुछ बिचौलिए हजारों करोड़ कैसे कमा रहे हैं। पंजाब कृषि विवि के एक अध्ययन के अनुसार पंजाब के आढ़तियों ने बिना कुछ किए धरे 1990 से 2007 के बीच लगभग 8000 करोड़ रुपए कमाए। यह है बिचौलियों का तंत्र! सरकार में अहम पदों पर बैठे लोग भी स्वीकार करते हैं कि खाद्य पदार्थों के दाम उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते 700 गुना तक बढ़ जाते हैं लेकिन इस नपुंसक आत्मस्वीकृति से लोगों को राहत नहीं मिल सकती। आखिर लागत और विक्रय मूल्य के बीच कोई लॉजिकल सम्बंध क्यों नहीं होना चाहिए? यह इसलिए नहीं होता चूंकि देश के राजनीतिक दलों, नगर से लेकर विधानसभाओं और संसद तक मौजूद उनके कारिंदों को इस काली कमाई का एक बड़ा हिस्सा जाता है। चुनावों और महंगाई के बीच के अवैध संबंध जब तब जाहिर होते रहते हैं। इसलिए यह कहना कि सरकार के पास महंगाई से निपटने की कोई नीति नहीं है, एक अर्द्धसत्य है। केंद्र सरकार के पास ऐसे दिमागों की कमी नहीं है जो इसका हल चुटकियों में निकाल सकते हैं पर वे ऐसा चाहते नहीं हैं। इसके पीछे मनमोहनोमिक्स तो है ही साथ में ऐसी सरकार भी है जिसने अपनी अंतरात्मा और ईमान बाजार के हाथों गिरवी रख दिया है। यही कारण है कि सरकार के गोदामों में गेहूं चावल सड़ रहा है और देश का दरिद्रनारायण भूखों मर रहा है। क्योंकि सरकार जानती है कि यदि वह गोदामों के गेहूं और चावल को रियायती दरों पर बाजार में लाई तो खाद्यान्न के दाम गिर जायेंगे और उसके खेवनहार बिचौलिए और वायदा कारोबारी कंगाल हो जायेंगे। इसलिए लाखों टन अनाज सड़ता

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

शाबास ! टीपीएस !! शाबास ! फोनिया !!





उत्तराखंड जैसे राज्य में जहां खुद को उत्तराखंड आंदोलनकारी करार देने के लिए हजारों आवेदन पत्र सरकार के पास पड़े हों वहां पूर्व ले.जन. टीपीएस रावत और पूर्व मंत्री केदार सिंह फोनिया ने लालबत्ती लेने से इंकार कर राज्य के नेताओं के सामने एक मिसाल पेश की है। प्रदेश में लालबत्ती पाने को लेकर इतनी होड़ है कि हर राजनीतिक पार्टी इससे हैरान है। भाजपा की सरकार ने इतना जरुर कर दिया है कि लालबत्तीधारी कोई सरकारी काम नहीं करेंगे पर मानदेय सरकार से लेंगे। सरकारी खजाने से होने वाले इस दस करोड़ सालाना के खर्च का औचित्य सरकार को यदि कभी न्यायालय के सामने देना पड़े तो तब पता नहीं वह इसे कैसे उचित ठहरायेगी कि धेले भर का सरकारी काम किये बिना उसने अपने कुछ नेताओं के मानदेय, गाड़ी, घोड़ा और स्टाफ पर पांच साल में पचास करोड़ फूंक डाले। मौजूदा सरकारी कानूनों के हिसाब से सरकार की एक पाई का भुगतान भी बिना किसी काम के नहीं हो सकता। लालबत्तीधारियों को उनकी हैसियत बताने के लिए हाल ही में भाजपा ने एक निर्देश जारी किया कि वे कोई सरकारी काम न करें और सिर्फ पार्टी और सरकार का प्रचार करे। बताया जाता है कि भाजपा के मंत्री लालबत्तीधारियों की हरकतों से खासे नाराज हैं। उन्होने मुख्यमंत्री से शिकायत की कि लालबत्तीधारियों ने विभागों में अपनी अलग सत्ता कायम कर ली है। दरअसल शिकायतकर्ता मंत्रिगण इसलिए ज्यादा फिक्रमंद थे कि कुछ दबंग किस्म के लालबत्तीधारियों ने मंत्रियों के बाजार में अपने खोखे डाल दिए जिससे उनके धंधे पर असर पड़ने लगा था। उधर कुछ तो मंत्रियों के मुंहलगे अफसरों की ही क्लास लेने में लग गए। सीएम ने इस शिकायत को पार्टी अध्यक्ष के पाले में खिसका दिया। पार्टी ने यह साफ कर दिया है कि लालबत्तीधारी इस प्रजाति की सरकारी हैसियत शून्य है। उन्हे अब बस इतना करना है कि गनर, गाड़ी, नाममात्र का स्टाफ लेकर घूमें,फिरें, ट्रªैफिक के सिपाही को हड़काने के अधिकार के साथ मौज करें पर सरकारी काम के पचड़े में न पड़ें। इसके बावजूद लालबत्ती को लालायित लालों की तादाद में कोई कमी नहीं आई है।

ऐसी होड़ के बीच टीपीएस रावत और केदार सिंह फोनिया ने बताया कि उन्हे लालबत्ती से ज्यादा अपना सम्मान प्यारा है। उत्तराखंड की राजनीति में यह दुर्लभ घटना है। भारतीय सेना में ले0ज0 रहे टीपीएस रावत को भले ही पर्यटन मंत्री के रुप में विवादों का सामना करना पड़ा हो पर पहले हरक सिंह के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़कर और अब लालबत्ती पर लात मारने वाले रावत ने बताया है कि वह एक स्वाभिमानी नेता हैं। मूलतः पौड़ी जिले के धुमाकोट क्षेत्र के निवासी सेना के इस पूर्व अफसर को इस पहाड़ी मिजाज के लिए सलाम किया जाना चाहिए। पूर्व पर्यटन मंत्री केदार सिंह फोनिया उत्तराखंड में पर्यटन की गहरी जानकारी रखने वाले विशेषज्ञ माने जाते हैं। पौड़ी के मैस्मोर स्कूल में पूर्व मुख्यमंत्राी बीसी खंडूड़ी के सहपाठी और स्कूली मित्र रहे फोनिया अपने मूल्यों पर अड़े रहने के लिए जाने जाते हैं। उनका राजनीतिक जीवन बेदाग कहा जा सकता है। लालबत्ती की सरकारी पेशकश को ठुकराने के लिए वह जनता की ओर से शाबासी के हकदार हैं। इन दोनों नेताओं ने इतना तो बताया है कि उत्तराखंड लालबत्ती के लालायित राजनीतिक भेड़ों का ही प्रदेश नहीं है बल्कि इसके अपवाद भी हैं। हां, इतना अवश्य है कि ये दोनों ही नेता उस पीढ़ी से आते हैं जिसे हम पुरानी पीढ़ी कहते हैं जबकि उम्मीद की यह किरण नई पीढ़ी से आनी चाहिए थी।


गुरुवार, 5 अगस्त 2010

जनरल का अगला कदम ? सरेंडर या जंग!

पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री बीसी खंडूड़ी को जब आलाकमान ने तमिलनाडु का प्रभार दिया तब भाजपा के भीतर ही उनका मजाक उड़ाते हुए कहा गया कि राजगद्दी तो दृर उन्हे कोश्यारी की तरह उत्तराखंड की राजनीति से विदा कर सुदूर दक्षिण में वनवास पर भेज दिया गया है। आलाकमान के इस कदम से आम लोगों के बीच भी यही संदेश गया है कि भाजपा नेतृत्व अब जनरल को ठिकाने लगाकर प्रदेश की सत्ता की बागडोर पूरी तरह से मुख्यमंत्री निशंक के हाथ में ही रखना चाहता है। इसे साफ तौर पर जनरल को उत्तराखंड से बाहर करने की भाजपा की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। भाजपा के ताजा कदम के बाद जनरल के पास विकल्प लगातार कम हो रहे हैं और उनके पास फैसला करने का वक्त भी कम होता जा रहा है। उनके लिए ‘‘करो या मरो’’ की घड़ी अब ज्यादा दूर नहीं रह गई है। एनडीए के सबसे काबिल, चमकदार और प्रशंसित मंत्री रहे भुवनचंद्र खंडूड़ी को जब आलाकमान ने तमिलनाडु का प्रभार सौंपा तो इसे पूरे देश में आश्चर्य के साथ देखा गया। क्योंकि इस राज्य में एक तो भाजपा का अस्तित्व बस नाममात्र का है और जनरल के लिए इस राज्य में करने के लिए कुछ नहीं है। आलाकमान के इस फैसले को मुख्यमंत्री खेमे की विजय करार दिया गया और जाहिर है कि इस पर जश्न भी मनाया गया होगा। इस खेमे के कुछ महारथियों ने मजाक उड़ाते हुए कहा कि जनरल के हाल उन चौबेजी जैसे हो गए हैं जो छब्बे बनने के चक्कर में दुब्बे होकर रह गए। जनरल को तमिलनाडु और कोश्यारी को झारखंड भेजे जाने के फैसलों को मुख्यमंत्री के मैनेजमेंट का कमाल के रुप में खूब प्रचारित किया गया। राजनीति के पंडित इसे मनी मैनेजमेंट का करिश्मा करार दे रहे है। बहरहाल आलाकमान के इस फैसले से जनरल के उन समर्थकों को झटका लगा हैै जो पनबिजली और स्टर्डिया घोटाले मीडिया में उछलने के कारण तत्काल नेतृत्व परिवर्तन की उम्मीद कर रहे थे। इन तीन महीनों में उन पर राजनीतिक हमले तेज हुए हैं। हैरानी की बात यह है कि ये राजनीतिक हमले उन पर विपक्ष ने नहीं बल्कि उनकी अपनी सरकार ने किए हैं। पनबिजली घपले में उन्हे मुख्य दोषी करार देने का सुनियोजित अभियान चलाया गया। क्योंकि पार्टी के भीतर उनके विरोधी जानते हैं कि जनरल की कुल जमापूंजी उनकी ईमानदार छवि ही है और इस छवि के कारण आलाकमान उनको फिर बागडोर सौंप सकता है। खंडूड़ी की छवि को मटियामेट करने से उनका करिश्मा भी ध्वस्त हो जाएगा, यह उनके विरोधी भी जानते हैं। इसलिए पार्टी और सरकार के अंदर से हो रहा यह हमला जनरल के लिए सबसे अप्रिय और घातक है। उनके समर्थक मानते हैं कि उनके साथ ऐसा सुलूक तो कभी कांग्रेस ने भी नहीं किया। लेकिन सत्तारुढ़ खेमे के हमले यहीं तक सीमित नहीं हैं। अब उनके विधानसभा क्षेत्र में ही उनकी जड़ों को खोखला करने का अभियान चलाया जा रहा है ताकि वह अगले विधानसभा चुनाव में वह धुमाकोट से चुनाव जीतने की सोच भी नहीं सकें। उनके समर्थकों का कहना है कि जनरल के विधानसभा क्षेत्र के साथ विरोधी दल के क्षेत्र जैसा सुलूक किया जा रहा है। तमाम विकास कार्य या तो रोक दिए गए हैं या फिर उनकी गति इतनी धीमी कर दी गई है कि अगले विधानसभा चुनाव तक उनमें दस फीसदी काम भी नहीं हो सकेगा। आरोप है कि रिखणीखाल में डिग्री कॉलेज शुरु हो चुका है पर उसे एक पैसा भी नहीं दिया जा रहा है लिहाजा उसका निर्माण लटका हुआ है। ऐसा ही हाल यहां के आईटीआई का है जिस पर काम बंद है। नैनीडांडा और परंडी पंपिग योजनायें रद्द कर दी गई हैं। खंडूड़ी समर्थक आरोप लगा रहे हैं कि क्षेत्र में हजारों वृद्धों और निराश्रितों की समाज कल्याण से मिलने वाली पेंशन रोक दी गई है। जनरल द्वारा शुरु की गई सड़कों में से अधिकांश को धन आवंटित करने की गति इतनी धीमी कर दी गई है कि वे रेंग रही हैं। यदि वे इसी गति से बनाई जाती रहीं तो शायद ही कभी पूरी हो सकेंगी। उनके समर्थक बता रहे हैं कि रिखणीखाल और नैनीडांडा विकासखंड एक-एक डॉक्टर के भरोसे चल रहे हैं। सरकार के इस रवैये पर रिखणीखाल के एक बुजुर्ग फतेह सिंह रावत का कहना था कि ऐसा लग रहा है कि लोगों कोे पूर्व मुख्यमंत्राी के क्षेत्र का होने के लिए दंडित किया जा रहा है। जनरल अभी भी उत्तराखंड भाजपा के सबसे बड़े और करिश्माई नेता हैं। राज्य की 26 विधानसभा सीटों के नतीजे प्रभावित करने की क्षमता वह रखते हैं। लेकिन जनरल यदि लंबे समय तक राजनीतिक रुप से निष्क्रिय और निष्प्रभावी रहे तो उनका राजनीतिक असर और आधार दोनों ही चुक जायेंगे। उनका आभामंडल वक्त की गर्द में धुंधला होकर अपनी चमक खो देगा। आने वाले कुछ महीने खंडूड़ी को तय करना होगा कि वह या तो सरेंडर करें और प्रदेश भाजपा की राजनीति के हाशिए पर रहने की नियति स्वीकार कर लें या फिर भाजपा के भीतर या बाहर अपने पुरुषार्थ के बल पर महत्वपूर्ण भूमिका हासिल करें। इतना तो उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं कि जनरल भाजपा के बगैर भी अपने बूते एक दर्जन प्रत्याशी जिताने की क्षमता रखते ही हैं। जनरल की मुश्किल यह है कि उन्होने अभी तक साहस और जोखिम की राजनीति नहीं की है। उनकी राजनीति की इस सीमा को देखते हुए ही पार्टी के भीतर विरोधी उनके खिलाफ हमलावर हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अनुशासन के मुरीद जनरल कभी भी बगावत की हद तक नहीं जायेंगे। इसके बावजूद जनरल में क्षेत्रीय राजनीति के एक ताकतवर धुरी बनने की पूरी क्षमता है। वह चाहें तो कांग्रेस और भाजपा में बंटी उत्तराखंड की राजनीतिक धारा को मोड़कर इतिहास बना भी सकते हैं और ईमानदारी की दुखांत कहानी के रुप में गुम भी हो सकते हैं।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

विकीलीक्स से टूटा सूचना पर एकाधिकार

दुनिया की सबसे चर्चित वेबसाइट विकीलीक्स के खुलासों ने अमेरिका और पाकिस्तान को हिला दिया है। पेंटागन के रहस्यलोक में दुनिया की सबसे कड़ी चौकसी में रखे गए एक लाख से ज्यादा सर्वाधिक संवेदनशील खुफिया फौजी दस्तावेजों को इंटरनेट पर जारी कर विकीलीक्स ने दुनिया भर में तहलका मचा दिया है। पहली बार व्हाइट हाउस और पेंटागन में सूचना की ताकत से हड़कंप मचा हुआ है। इन रहस्योद्घाटनों से साफ हो गया है कि आतंकवाद निर्यात करने वाले देशों में पाकिस्तान अभी भी टॉप पर है और यह सब वह अमेरिका की जानकारी में कर रहा है। इसी के साथ आंतकवाद के खिलाफ अमेरिकी जंग के पाखंड का भी पर्दाफाश हो गया है। ये दस्तावेज बताते हैं कि काबुल में भारतीय दूतावास से लेकर भारतीय संस्थानों पर तालिबानी हमले आईएसआई द्वारा प्रायोजित होने की जानकारी अमेरिका को थी। जाहिर है कि भारत के साथ उसकी दोस्ती सिर्फ कूटनीतिक धोखाधड़ी से ज्यादा कुछ नहीं है। इससे अमेरिका के प्रति भारत सरकार के झुकाव पर भी सवालिया निशान लग गया है और पाक के साथ उसकी बातचीत भी अमेरिकी हितों के लिए की गई कवायद ही प्रतीत होती है। इंटरनेट की दुनिया के इस सबसे बड़े खुलासे से दुनिया की सारी सरकारों के माथे पर बल पड़ गए हैं क्योंकि जनता से छुपाकर रखे गए उनके खुफिया राज कभी लीक हो सकते हैं। सूचना की आजादी के नजरिये से यह बड़ी घटना है। अभी तक सूचनाओं की राजनीति के जरिये कभी चीन तो कभी ईरान तो कभी रुस को काबू में करने में लगे अमेरिका के लिए विकीलीक्स दुस्वप्न बनकर आया है। पिछले महीनों गूगल और चीन के विवाद में चीन को इंटरनेट पर सूचनाओं की आजादी का पाठ पढ़ाने वाले अमेरिका को अब खुद इसका मजा चखना पड़ रहा है। अपने प्रतिद्वंदी देशों के असंतुष्टों और विद्रोहियों के प्रचार को मदद देने के लिए अमेरिका सूचना की आजादी का सबसे बड़ा समर्थक रहा है। दुनिया में समाचार और सूचनाओं के अधिकांश माध्यमों में सूचनाओं का प्रवाह एकपक्षीय रहा है। ईरान,इराक से लेकर क्यूबा तक पाश्चात्य दुनिया के सारे माध्यमों में सूचनाओं का समूचा प्रवाह अमेरिका की ओर रहा। अपने दुश्मनों से निपटने के लिए उसने सूचनाओं को हथियार के रुप में इस्तेमाल किया। इससे सूचना की आजादी अमेरिकी हितों की पर्याय हो गई। लेकिन विकीलीक्स ने सूचनाओं के इस खेल का पासा पलट दिया है। इंटरनेट पर अब तक के सबसे बड़े खुलासे को अंजाम देते हुए उसने अमेरिका को सांसत में डाल दिया है। आईएसआई और पाक फौज से उसके रिश्तों के चलते आतंकवाद के खिलाफ उसकी बहुप्रचारित लड़ाई की पोल खुल गई है। यह भी जग जाहिर हो गया है कि उसे हामिद करजई और भारत के खिलाफ किए जाने वाले हमलों की जानकारी थी। उसके लिए सबसे असुविधाजनक यह है कि उसे अमेरिकी जनता को जबाब देना होगा कि वह खरबों डालर उन संस्थाओं पर क्यों खर्च कर रहा है जो ग्लोबल आतंकवाद के सबसे बड़े निर्यातक हैं। दुनिया की हर सरकार गोपनीयता और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सूचनाओं को आम लोगों तक नहीं पहुंचने देती। यहां तक दुनिया में लोकतंत्र के सबसे बड़े पहरेदार होने का दावा करने वाले देश भी इसके अपवाद नहीं हैं। विकीलीक्स ने सूचनाओं की दुनिया पर सरकारों के एकाधिकार को खत्म कर दिया है। सरकार के कड़े पहरों के बीच उसने चोर दरवाजे खोज लिए हैं। यह सही मायनो में सूचना की आजादी और उसके निर्बाध संचरण की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है। इससे साबित हो गया हैै कि इंटरनेट की तरंगों पर अब अमेरिकी लगाम के दिन भी लद गए है। भविष्य में हर देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं होगी जो सरकारों की गोपनीयता के परखच्चे उड़ाने के लिए विकीलीक्स को खुफिया दस्तावेज मुहैया करायेंगे। इसे सरकारों के कामकाज में साफगोई और पारदर्शिता की शुरुआत माना जाना चाहिए। सूचनाओं के तंत्र पर सरकारी एकाधिकार टूटने से उम्मीद की जाने चाहिए कि इसके बाद किसी न किसी दिन नागरिकों के खिलाफ इस्तेमाल होने वाली अंधाधुंध हिंसा पर राज्य का एकाध्किार भी टूटेगा। दिन ब दिन हिंसक,गैर जबाबदेह और गैर जिम्मेदार होते जा रहे आधुनिक राज्यों पर जनशक्ति का अंकुश लग सकेगा।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

जनरल नाराज, दिल्ली रवाना

पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी आज दिल्ली रवाना हो गए हैं।उनके दिल्ली दौरे को लेकर अटकलें लगनी शुरु हो गई हैं। माना जा रहा है कि जनरल अपने दिल्ली दौरे के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी, लालकृष्ण आडवाणी समेत भाजपा के आला नेताओं से मिलकर मुख्यमंत्री के रंगढंग के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त करेंगे। पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी के भी आज रात दिल्ली पहुंचने की संभावना है। इन दो दिग्गजों के आलाकमान से मिलने की खबरों के चलते अटकलों का दौर शुरु हो गया है और प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की खबरें एक बार फिर से हवाओं में तैर रही हैं।

प्रदेश के मुखिया से पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी की नाराजगी खत्म होती नजर नहीं आ रही है। पनबिजली परियोजनाओं में अपना नाम घसीटे जाने से वह खफा हैं। एक अंग्रेजी अखबार के दिल्ली संस्करण में राज्य के अफसरों के हवाले से इस घोटाले की जिम्मेदारी जनरल के सर पर डाले जाने की घटना ने जनरल के पारे को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है। इस पर घी डालते हुए प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत ने बीते दिन इस घोटाले में खंडूड़ी को भी लपेट लिया। उन्होने चुनौती दी है कि यदि जनरल पाक साफ हैं तो सामने आयें। गौरतलब है कि प्रतिपक्ष के नेता मुख्यमंत्री के करीबी माने जाते हैं। इसलिए जनरल के समर्थक हरक सिंह रावत के इस हमले को मुख्यमंत्री द्वारा गाइडेड मिसाइल हमला मान रहे हैं। इस बीच पता चला है कि अपने पर लगातार हो रहे हमलों के खिलाफ जनरल ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को एक पत्र लिखा है। इस पत्र की भाषा काफी सख्त मानी जा रही है और उन सारे कदमों की जानकारी दी गई है जो जनरल के खिलाफ उन्ही की सरकार ने उठाए हैं। बताया जाता है कि जनरल ने कहा है कि मुख्यमंत्री उनके खिलाफ व्यक्तिगत अभियान चला रहे हैं। यहां तक कि उनकी विधानसभा क्षेत्र में उनके कार्यकाल में मंजूरशुदा योजनाओं को भी रोक दिया गया हैे। बताया जाता है कि इसी पत्र के सिलसिले में गडकरी ने बात करने के लिए उन्हे दिल्ली बुलाया है। गडकरी और आडवाणी से उनकी मुलाकात अहम मानी जारही है। जनरल ने आलाकमान से पनबिजली प्रोजेक्टों को लेकर प्रेस कांफ्रेस करने की इजाजत भी मांग रहे हैं। आलाकमान को डर है कि यदि जनरल ने इस घपले की सीबीआई जांच कराने की मांग कर दी तो भाजपा की जबरदस्त किरकिरी होगी। जनरल के सामने आने से भाजपा मुश्किल में फंस सकती है।
इस बीच पता चला है कि आलाकमान प्रदेश के बारे में कोई महत्वपूर्ण फैसला लेने से पहले मुख्यमंत्री, कोश्यारी और खंडूड़ी को एक साथ बिठाकर मौजूदा समस्या का समाधान खोजना चाहता है। लेकिन जनरल के समर्थकों का कहना है कि पनबिजली प्रोजेक्टों को लेकर जिस तरह से पूर्व मुख्यमंत्री के खिलाफ अभियान चलाया जारहा है उससे पैचअप की संभावनायें खत्म हो गई हैं। कोश्यारी के भी जनरल के साथ खड़े हो जाने से भी नेतृत्व परिवर्तन की मुहिम जोर पकड़ गई है। ताया जाता है कि यदि बातचीत से समस्या का हल नहीं निकला तो विधायकों का एक धड़ा सीधे सामने आ सकता है। उल्लेखनीय है कि सहसपुर विधायक के पिटाई कांड से भाजपा के विधायकों का एक धड़ा मोर्चा खोलने के लिए तैयार बैठा है। भाजपा की राजनीति में क्या गुल खिलता है इसके लिए शनिवार को आलाकमान से खंडूड़ी,कोश्यारी की मीट्रिग से तय होगा। सूत्रों का दावा है कि हो सकता है कि मुख्यमंत्री को भी शनिवार को दिल्ली तलब कर लिया जाय।


बुधवार, 21 जुलाई 2010

सत्तर पार लीलाधर जगूड़ी

हिंदी के प्रख्यात कवि लीलाधर जगूड़ी बीती एक जुलाई को सत्तर साल के हो चुके हैं। उन्होने अपना यह जन्म दिन देहरादून की उमस और शोर शराबे से बहुत दूर उत्तरकाशी में मनाया। सेना की नौकरी से लेकर रात के चौकीदार तक कई प्रकार की नौकरियां करने वाले जगूड़ी के निजी जीवन के संघर्ष हैरत में भी डालते हैं और एक मामूली घर में जन्मे एक किशोर की अजेय जिजीविषा की गवाही भी देते हैं।आखिर रात की चौकीदारी करने से लेकर साहित्य अकादमी पुरष्कार पाने तक का यह सफर यूं ही तो नहीं रहा होगा। टिहरी के बीहड़ पहाड़ में बसे धंगड़ गांव के उस अजेय किशोर को उसी की इस कविता के साथ सत्तरवें साल पर सलाम !



हत्यारा

हत्यारा पहने हुए है सबसे महंगे कपड़े

हत्यारे के सारे दांत सोने के हैं पर आंते पैदायशी

हत्यारे के मुंह में जीभ चमड़े की पर चम्मच चांदी का है

हत्यारे का पांव घायल मगर जूता लोहे का

हाथ हड्डी के मगर दस्ताने प्लेटिनम के हैं

हत्यारे के पास करने के लिए हैं कई वारदातेकं

कई दुर्घटनायें

देने को हैं कई जलसे कई समारोह

कई व्यवस्था- विरोध और कई शोक-सभाएॅं

मगर अब तो वह विचार भी देने लगा है

पहले विचार की हत्या के साथ

                      हत्यारा चाहता है तमाम सुंदर और मजबूत विचार

                      हत्याओं के बारे में

                      वह चाहता है जितने भी सुंदर और मजबूत विचार हों

                      सब उसी के हों

                      वह फेंके और विचार चल पड़ें

                      वह मारे और विचार जीवित हों

                       वह गाड़े और विचार फूट पड़ें

                       हत्यारा पूरा माहौल बदलना चाहता है

                      वह आए और शब्द सन्नाटे में बदल जांय

                       वह बोले और भाषा जम जाए

                       हत्या हो समारोह हो और विचार हों सिर्फ उसके