सोमवार, 9 अगस्त 2010

महंगाई पर नीति में नहीं नीयत में खोट




महंगाई पर संसद में जबरदस्त बहस और केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बयान के बावजूद मंहगाई की इस अंधी सुरंग से निकलने का कोई रास्ता निकलता नहीं दिख रहा। राजनीति की भूलभूलैया में यह मुद्दा बस बहस में ही समाप्त होकर रह गया। इस पूरी बहस से इतना तो पता चल ही गया कि महंगाई के मुद्दे पर राजनीतिक दलों की नीयत साफ नहीं है। सोनिया गांधी की गरीब फ्रैंडली मुद्रा के बावजूद इस समस्या की जड़ें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उस कुलीन आर्थिक राजनीतिक अवधारणा में है जो गरीब विरोधी और देश के सामाजिक आर्थिक ढंचे को तहस नहस कर देने वाली है।
 प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईमानदार और बेदाग प्रधनमंत्री के खिताब से नवाजे जाते रहे हैं। उनकी इस ईमानदारी के बावजूद कांग्रेस संसदीय चुनावों के लिए कई हजार करोड़ जुटाने में कामयाब रही। जाहिर है कि यह पैसा उस आम आदमी ने नहीं दिया जिसके साथ कांग्रेस हाथ होने की बात कही जा रही थी। यह पैसा उन लोगों ने दिया है जो इस देश को बाजार अर्थव्यवस्था के हिसाब से चलाने की आजादी चाहते हैं ताकि उनका मुनाफा कुलांचे भरता रहे। कहीं महंगाई का यह दौर उसी वर्ग के चुनावी कर्ज उतारने से तो नहीं पैदा हुआ। कांग्रेस के लोग इससे असहमत हो सकते हैं पर मंहगाई पर केंद्र जिस तरह से हाथ पर हाथ धरे हुए बैठा है उससे क्या इस आरोप का औचित्य साबित नहीं होता। इस पूरे प्रकरण से उन लोगों की आंखे खुल जानी चाहिए जो प्रधानमंत्री की ईमानदारी के कसीदे पढ़कर इसे कांग्रेस को वोट देने का सबसे बड़ा कारण बता रहे थे। साफ है कि व्यक्तिगत ईमानदारी का सवाल राजनीति में बहुत मायने नहीं रखता। भ्रष्टाचार के तंत्र को फलने-फूलने की आजादी देने वाला एक ईमानदार आदमी भी भ्रष्ट व्यवस्था के शिखर पर जमे रह सकता है। एक जनविरोध्ी तंत्र को भी अपनी साख बनाए रखने के लिए कुछ साफ सुथरा चेहरों की जरुरत होती है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के जिस आदमखोर पशु से हमारा पाला पड़ा है उसके सिद्धांतकारों में मनमोहन सिंह समेत कई ईमानदार और समर्पित हस्तियां हैं। लोकसभा में सुषमा स्वराज और राज्यसभा में अरुण जेटली ने इशारों- इशारों में इसे कहा भी। महंगाई के गणित के सूत्र मनमोहन के आर्थिक विकास दर वाले अर्थशास्त्र से भी निकलते हैं। लेकिन बीमारी सिर्फ इतनी ही नहीं है बल्कि इससे ज्यादा गंभीर और चिंता में डालने वाली है। विदेशी स्वामियों को खुश करने के लिए भारत सरकार ने उदारीकरण और भूमंडलीकरण के रास्ते को चुनने में वे मूलभूत सावधानियां भी नहीं बरतीं जो अमेरिका समेत सभी विकसित देशों ने बरती।
 यह ऐसा देश है जिसके पास बाजार का नियमन करने के लिए न कड़े उपभोक्ता कानून हैं और न ही कोई नियामक संस्था। लाइसेंस राज तो खत्म हो गया लेकिन बाजार का अंधेर राज कायम कर दिया गया। आज एक आम आदमी के पास अनुचित मूल्य या घटिया सामग्री का प्रतिकार करने के लिए कोई प्रभावी तंत्र नहीं है। आम उपभोक्ता बाजार में असहाय और दयनीय आदमी है जिसके पास व्यापारी की बात मानने और जेब से दाम चुकाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उसके पास यह जानने का न साधन है और न अधिकार कि वह जो खरीद रहा है उसका लागत मूल्य कितना है। वह समझ पाने में असमर्थ है कि एक ब्रांड की मुहर लगने मात्रा से किसी वस्तु का दाम कैसे 500 से 700 गुना तक बढ़ जाता है। उसके पास नकली सामान, प्रदूषित और खतरनाक खाद्य पदार्थों से बचने का कोई रास्ता नहीं है। उसका सामना हर रोज ऐसे सर्वशक्तिमान और स्वेच्छाचारी बाजार से होता है जो देश के कानूनों से ऊपर एक संविधानेतर और संप्रभु सत्ता है। स्पष्ट है कि भारत की सरकार और भारतीय राज्य की सहमति के बिना देश में ऐसी असंवैधानिक सत्ता नहीं चल सकती। भारतीय बाजार का कोई तर्कशास्त्र नहीं है। वहां जंगल राज है।उसमें एक ओर बिना मांग के ही दामों को कई गुना बढ़ाने वाला सट्टा बाजार है तो दूसरी ओर मुनाफाखोरी में माहिर देशी रुप से विकसित ऐसा आढ़त बाजार है जिसमें भाव अकारण ही कई गुना बढ़ा दिए जाते हैं। आम लोगों तक कभी यह जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती कि खाद्यान्न वायदा कारोबारियों ने सिर्फ सट्टबाजी कर साल भर में कितने हजार करोड़ रुपए बना लिए या आढ़तियों के तंत्र ने सिर्फ दामों की हेराफेरी कर साल भर में कितना मुनाफा कमाया। जाहिर है कि सरकार नहीं चाहती कि लोग कभी यह जान पायें कि अनाज का एक दाना पैदा किए बिना ही कुछ बिचौलिए हजारों करोड़ कैसे कमा रहे हैं। पंजाब कृषि विवि के एक अध्ययन के अनुसार पंजाब के आढ़तियों ने बिना कुछ किए धरे 1990 से 2007 के बीच लगभग 8000 करोड़ रुपए कमाए। यह है बिचौलियों का तंत्र! सरकार में अहम पदों पर बैठे लोग भी स्वीकार करते हैं कि खाद्य पदार्थों के दाम उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते 700 गुना तक बढ़ जाते हैं लेकिन इस नपुंसक आत्मस्वीकृति से लोगों को राहत नहीं मिल सकती। आखिर लागत और विक्रय मूल्य के बीच कोई लॉजिकल सम्बंध क्यों नहीं होना चाहिए? यह इसलिए नहीं होता चूंकि देश के राजनीतिक दलों, नगर से लेकर विधानसभाओं और संसद तक मौजूद उनके कारिंदों को इस काली कमाई का एक बड़ा हिस्सा जाता है। चुनावों और महंगाई के बीच के अवैध संबंध जब तब जाहिर होते रहते हैं। इसलिए यह कहना कि सरकार के पास महंगाई से निपटने की कोई नीति नहीं है, एक अर्द्धसत्य है। केंद्र सरकार के पास ऐसे दिमागों की कमी नहीं है जो इसका हल चुटकियों में निकाल सकते हैं पर वे ऐसा चाहते नहीं हैं। इसके पीछे मनमोहनोमिक्स तो है ही साथ में ऐसी सरकार भी है जिसने अपनी अंतरात्मा और ईमान बाजार के हाथों गिरवी रख दिया है। यही कारण है कि सरकार के गोदामों में गेहूं चावल सड़ रहा है और देश का दरिद्रनारायण भूखों मर रहा है। क्योंकि सरकार जानती है कि यदि वह गोदामों के गेहूं और चावल को रियायती दरों पर बाजार में लाई तो खाद्यान्न के दाम गिर जायेंगे और उसके खेवनहार बिचौलिए और वायदा कारोबारी कंगाल हो जायेंगे। इसलिए लाखों टन अनाज सड़ता

यही नहीं एनडीए ने जनवितरण प्रणाली को ध्वस्त करने का जो सिलसिला शुरु किया था उसे यूपीए वन और टू ने जारी रखकर साबित कर दिया कि वे एनडीए की सच्ची वारिस हैं। क्योंकि एक जनमुखी जनवितरण प्रणाली बाजार की अराजकता और स्वेच्छाचारिता पर लगाम लगाने का सबसे बड़ा साधन है। इसे नष्ट किए बिना बाजार अंधाधुंध मुनाफा नहीं कमा सकता। इसीलिए इससे पहले एपीएल के नाम पर निम्न मध्यवर्ग को अलग किया गया और अब इसे लुंजपुंज बनाकर गरीबों के लिए भी इसे निरर्थक बना दिया गया है। ये सारी बातें इसी सत्य को उजागर करती हैं कि खोट सरकार की नीयत में है। मनरेगा जैसे सांकेतिक उपाय कर वह इस पाप से पीछा नहीं छुड़ा सकती। पहले गरीबों की तादाद बढ़ाने जैसी महामारी पैदा करना और फिर मनरेगा का मानवीय चेहरा सामने लाने से बात नहीं बनेगी। सरकार में यदि थोड़ी भी लोकलाज बची है तो उसे गरीबी और भुखमरी पैदा करने वाले सामूहिक विनाश के अस्त्रों की अपनी फैक्टरियों को बंद करना होगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें