शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

Uttarakhand News

                                               शहीदों ! हम शर्मिंदा हैं !!


 
उत्तराखंड आंदोलन को 16 साल बीत गए और अलग राज्य बने 10 साल होने को हैं। इसके बावजूद सत्ता पर काबिज चौकड़ी के अलावा कोई यह नहीं कह सकता कि हम इन 10 सालों में शहीदों के सपनों का उत्तराखंड बनाने में कामयाब रहे हैं या उस दिशा में जाते दिख रहे हैं। उत्तराखंड आंदोलन के सपने, लक्ष्य और सवाल सब बेमानी हो चुके हैं। उत्तराखंड में एक ही सूत्रवाक्य, ‘‘लूटो, खसूटो और घर भरो’’ चल रहा है। राजनीति से लेकर सरकारी तंत्र,खबरनवीसों से लेकर साहित्य,संस्कृति और धर्म तक सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में बस पिंडारी ठगों और धंधेबाजों का बोलबाला है। दस साल लंबी यह रात अंधेरी है और काली भी! लेकिन मशाल दिखाना तो दूर जलाने वाला भी कोई नहीं ! निराशाओं का दौर है पर सपने देखने वाला और दिखाने वाला भी दूर-दूर तक नहीं! लेकिन इस अंधेरे वक्त में उम्मीद की हल्की और कांपती लौ को जलाए रखिए, रोशनी के उस बारीक रेशे को थाम कर रखिए! हो सकता है कि उसी से इस अंधेरे से निकलने का कोई रास्ता निकले!
  • दो अक्तूबर आया और गुजर गया। वक्त के गुबार में एक कौम के दिलो दिमाग से मसूरी, खटीमा और मुजफ्रपफरनगर की सड़कों पर बहे खून की स्मृतियां धुंधली पड़ने लगी हैं। बलात्कार के अपमान का लावा एकाध साल खौलकर अब ठंडा होकर सतह के नीचे जमने लगा है। आने वाले सालों में उस पर विस्मृति की राख की तहें जम जाएंगी। उत्तराखंड आंदोलन के गीत अब लोकगीतों की तरह याद आते हैं। गाहे- बगाहे हम उन्हे गुनगुनाते हैं। वे ससुराल में रह रही ब्याहता को मायके की याद दिलाने वाले खुदेड़ गीतों की तरह हमें कुछ देर के लिए बेचैन करते हैं और अगले ही क्षणों में हम सब अपनी जिंदगियों की भागदौड़ में व्यस्त हो जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि सदियों की नींद से जागते हुए 16 साल पहले लाखों लोगों ने एक साथ एक सपना देखा था। इतिहास के अंधेरे दौरों से गुजरते हुए एक समाज ने उत्तराखंड को देश का सबसे बेहतरीन राज्य बनाने का सपना देखा था और उस सपने के लिए कई जवान, कमसिन लड़के अपनी जान कुर्बान कर गए। इन सालों में बस इतना हुआ है कि शहीदों की शान में नेताओं के भाषण लंबे और उबाऊ होते गए हैं। इन भाषणों का रिकार्ड घिस-घिस कर बेसुरा हो गया है और सरकारी दफ्तरों के बाहर मान्यता की कृपा के लिए तरस रहे सरकारी आंदोलनकारियों की लाइनें लंबी होती जा रही हैं। शौर्य,स्वाभिमान और निस्वार्थ त्याग की महान परंपराओं वाले समाज के अगुआ हिस्सों के लिए राजदरबार में नाक रगड़ते देखने का यह दारुण दृश्य हमारे ही दौर को देखना था और वह भी उत्तराखंड आंदोलन के 16 साल बाद ही! शहीदों! हम पहाड़ी समाज के अगुआ हिस्सों के इस पतन और स्वाभिमान हीनता के लिए शर्मिंदा हैं।
  • हमारे समाज के जागरुक और सोचने-समझने वाले लोगों ने यदि अपने छोटे-बड़े स्वार्थों के लिए अपनी अंतरात्मा और सामान्य विवेक को गिरवी न रखा होता तो राज्य बनने के दस सालों में एक राज्य के रुप में उत्तराखंड की ऐसी दुर्दशा नहीं हुई होती। पहाड़ों में भावी पीढ़ी क्वालिटी शिक्षा तो दूर सामान्य शिक्षा से भी महरुम है। विडंबना यह है कि जो शिक्षा सुविधायें उसे सन् 2000 से पहले उपलब्ध थी राज्य बनने के बाद वह भी बरकरार नहीं रह पाई। नये राज्य ने तो पहाड़ के आम लोगों के बच्चों के बीच अब गुदड़ी के लालों के उदय की दुर्लभ संभावनायें भी नष्ट कर दी हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता और स्तर भी राज्य बनने से पूर्व की स्थिति से भी खराब हो गई है।सरकारी तंत्र पहले कहीं ज्यादा गैर जिम्मेदार और गैर जवाबदेह हो गया है। 108 सेवा के जरिये सरकार ने मान लिया है कि हम पहाड़ों में बेहतर सुविधायें नहीं दे सकते उन्हे बस एंबुलेंस सेवा दे सकते। हैं। हर वह आदमी जिसकी माली हालत थोड़ी सी बेहतर है, पहाड़ छोड़ने लिए बेताब है। ऐसा लगता है कि हमने राज्य नहीं बनाया बल्कि भस्मासुर को जन्म दे दिया। सर पर हाथ रखने का नाटक कर यह राज्य उत्तराखंड के ही मूल निवासियों को भस्म करने पर उतारु है।

 

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