रविवार, 29 अगस्त 2010

Uttarakhand News

           बाबा जीते,उत्तराखंड हारा


                 उत्तरकाशी में लोगों में उबाल
                 रामदेव को चप्पल दिखाए

BY Rajen Todariya
आखिरकार जीडी अग्रवाल,गोविंदाचार्य, राजेंद्र सिंह, बाबा रामदेव समेत कथित पर्यावरणवादियों की साजिश कामयाब हो ही गई। लोहारीनाग पाला पनबिजली प्रोजेक्ट पर केंद्र को भाजपा के करीब रहे संतों और पर्यावरणवादियों के आगे समर्पण करना पड़ा है। केंद्र का यह फैसला उत्तराखंड के लिए जबरदस्त झटका है क्योंकि अब वह भटवाड़ी से आगे गंगा या उसकी सहायक नदियों पर कोई पनबिजली प्रोजेक्ट नहीं बना पाएगा क्योंकि केंद्र सरकार अपनी सीमाओं से बाहर जाकर एकतरफा रुप से ‘इको सेंसेटिव जोन’ घोषित करने जा रही है। यह पहला मौका है जब केंद्र सरकार ने किसी राज्य के खास इलाके में सीधे दखल दिया है। केंद्र के इस पैसले को लेकर उत्तरकाशी में जबरदस्त उबाल है। गुस्साए लोगों ने उत्तरकाशी गए बाबा रामदेव को चप्पल दिखाए और हजारों की भीड़ जमा हो गई । रामदेव को बचाने में स्थानीय पुलिस के पसीने छूट गए।
इस बीच पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने भी केंद्र के फैसले पर सख्त नाराजगी जताते हुए प्रधानमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष को पत्र लिखे हैं। पत्र में तिवारी ने इसकी कड़ी आलोचना करते हुए कहा है कि इससे उत्तराखंड के हितों को दूरगामी नुकसान पहुंचा है। तिवारी ने कहा कि इस फैसले से उत्तराखंड राज्य के औचित्य पर ही सवालिया निशान लग गया है। उन्होने कहा है कि पनबिजली प्रोजेक्ट उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था के आधार हैं। तिवारी ने पत्र में कहा है कि इससे उत्तराखंड और उत्तर भारत में गंभीर बिजली संकट पैदा होगा। इस फैसले को फौरन रद्द करने की मांग करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री ने मांग की है कि गंगा बेसिन अथॉरिटी की बैठक बुलाकर लोहारीनाग पाला, पाला मनेरी और भैरों घाटी प्रोजेक्टों पर तत्काल काम शुरु कराया जाय।
भले ही जीडी अग्रवाल, गोविंदाचार्य, राजेंद्र सिंह, बाबा रामदेव समेत नए-नए पर्यावरणवादियों को एक महीने से ज्यादा लंबे चले आंदोलन के दौरान आम लोगों का रत्ती भर समर्थन न मिला हो पर केंद्र सरकार आखिरकार संघ परिवार की प्रेरणा से चल रहे आंदोलन के आगे झुक ही गई। लोहारीनाग पाला पनबिजली प्रोजेक्ट को जिस तरह से केंद्र ने बंद किया है उससे कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। उत्तराखंड जनमंच ने इस मुद्दे पर जनता और हाईकोर्ट में जाने का ऐलान करते हुए केंद्र से सवाल किया है कि यदि पर्यावरण के लिहाज से यह परियोजना रोकी गई है तो फिर केंद्र ने पर्यावरण प्रभाव का आकलन किए बगैर ही इस योजना को हरी झंडी कैसे दे दी? यदि यह सच है तो इतने खतरनाक फैसले के लिए जिम्मेदार केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के उच्चाधिकारियों और राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ कार्रवाई की जाय। इस लापरवाही के लिए केंद्रीय ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे को इस्तीफा क्यों नहीं दें। इस प्रोजेक्ट पर 500 करोड़ रुपया खर्च हो चुका है। पाला मनेरी पर 120 करोड़ रुपया और भैरोंघाटी पर 31 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। केंद्र सरकार को अदालत से लेकर जनता के बीच यह जवाब देना होगा कि पर्यावरण प्रभाव का आकलन किए बगैर केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस प्रोजेक्ट को मंजूरी कैसे दे दी? सार्वजनिक धन की इस बर्बादी के लिए प्रधानमंत्री भी जवाबदेह हैं क्योंकि उन्ही की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने इस प्रोजेक्ट को मंजूरी दी। स्पष्ट है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ठोक बजाए बगैर ही सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करने की मंजूरी दे दी। यदि देश की सरकार इतनी कैजुअली काम कर रही है? इससे मनमोहन सरकार के कामकाज करने के तौर तरीकों पर सवाल उठने लाजिमी हैं। हैरत की बात यह है कि 500 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद केंद्र अब जाकर इस प्रोजेक्ट के पर्यावरण प्रभावों पर समिति गठित कर रहा है।
मंच ने कहा है कि केंद्र सार्वजनिक धन की बर्बादी करने वाले पर्यावरण मंत्रालय और ऊर्जा मंत्रालय के सचिवों समेत तमाम बड़े अफसरों के खिलाफ मामला दर्ज करे। मंच ने कहा है कि केंद्रीय कैबिनेट ग्राम पंचायतों से भी खराब तरीके से काम कर रही है। केंद्र के इस फैसले के बाद उत्तराखंड को भविष्य में जबरदस्त नुकसान होने जा रहा है। क्योंकि वह अब गंगा की सहायक नदियों पर भी प्रोजेक्ट नहीं बना पाएगा। निकट भविष्य में ऐसी ही मांग अलकनंदा और उसकी सहायक नदियों पर बनने वाले बांधों के खिलाफ भी होने वाली है। इस समय राज्य में चूंकि भाजपा की सरकार है इसलिए राज्य सरकार के प्रोजेक्टों पर साधुओं और जीडी अग्रवाल मंडली ने कोई सवाल नहीं उठाया है। परंतु अग्रवाल के करीबी रवि चोपड़ा पहले ही उत्तराखंड की नदियों पर पनबिजली प्रोजेक्ट बनाए जाने की मुखालफत कर चुके हैं। आशंका व्यक्त की जा रही है कि यदि राज्य में कांग्रेस या गैर भाजपाई सरकार आई तो भाजपा से सहानुभूति रखने वाले संगठन आंदोलन छेड़ देंगे। आंदोलनकारियों को मुख्यमंत्री का खुला समर्थन मिलने से जाहिर है कि यह एक लंबी रणनीति का हिस्सा है। अलबत्ता इतना जरुर है कि बिजली के जरिये अपनी अर्थवयवस्था बेहतर करने का सपना देख रहा उत्तराखंड कंगाल राज्य ही बना रहेगा और उसके आने वाले मुख्यमंत्री कटोरा लेकर केद्र के दरवाजे पर खड़े रहने की नियति झेलेंगे। उत्तराखंड के लोगों को इससे शिकायत भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि उन्होने जिन्हे नेता चुना है वे पहाड़ विरोधी मानसिकता वाले लोगों के आगे दंडवत कर रहे हैं। उत्तराखंड के पानी पर बाहरी ताकतों का हमला हो चुका है। पेड़ों के बाद अब पानी की बारी है जो छीना जाने वाला है। उत्तराखंड खामोश है पर क्षेत्रवाद के बबंडर की आहटें करीब आ रही हैं।


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