मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

उत्तराखंड में जहर का कारोबार

उत्तराखंड में मिलावटखोरों का राज कायम हो चुका है । अरबों रुपये के जहर के इस कारोबार को करने वालों के साथ स्वास्थ्य विभाग ने भी हाथ मिला लिए हंै । एक करोड़ से ज्यादा की आबादी खाद्य पदार्थों के नाम पर धीमा जहर गटकने को मजबूर है । परंतु न सरकार जागती है और न जनता के हितों की चैकीदारी करने का दावा करने वाले जनप्रतिनिधि ।
भारतीय मिथकों में कहा गया है कि शिवजी को हलाहल पीना पड़ा था और इसी कारण उनका एक नाम नीलकंठ भी है । यह विडंबना है कि शिवजी की ससुराल कहे जाने वाले उत्तराखंड के लोग मिलावटखोरों के कारण नीलकंठ बनने को मजबूर हैं । यह कोई अतिरंजित निष्कर्ष नहीं है बल्कि स्पैक्स संस्था के हालिया सर्वे ने यह खुलासा किया है । सर्वे बताता है कि चार धाम यात्रा मार्गों पर परोसे जाने वाले खाद्य पदार्थों में 80 फीसदी से ज्यादा मिलावट है । इस मिलावट में शरीर को अल्पकालीन और दीर्घकालीन नुकसान पहंुचाने वाले हानिकारक तत्व शामिल हैं । संस्था का दावा है कि इन पदार्थों के सेवन से जोड़ों का दर्द, डायरिया, पेट व लीवर के रोग, केंसर जनित रोग, अल्सर, अंध रोग, त्वचा रोग, बाल झड़ना, बाल सफेद होना आदि गंभीर बीमारियां हो सकती हैं । यह स्थिति सिर्फ यात्रा रूटों की ही नहीं है बल्कि बाकी पहाड़ और मैदानी जिलों में हालात और भी भयावह हैं । जहर के कारोबारियों ने इन इलाकों को भी जहरीले खाद्य पदार्थों से पाट दिया है । राज्य में दूध और उससे बने पदार्थों में सबसे ज्यादा जहरीले रसायन मिले हुए हैं जिसके चलते बच्चों को शैशवकाल से ही जहर का सेवन करना पड़ रहा है । रिपोर्ट बताती है कि सरसों के तेल में शतप्रतिशत मिलावट है तो वलीं काली मिर्च, लाल मिर्च, हल्दी, धनिया, गर्म मसाले, मिठाइयों और रिफाइंड तेल में 80 से 94 फीसदी तक मिलावट पाई गई है । यात्रा में सबसे ज्यादा मिलावट ऋषिकेश में 92 फीसदी और सबसे कम ब्यासी में 54 फीसदी मिलावट पाई गई है । यहां यह गौरतलब है कि पहाड़ को खाद्य पदार्थ आपूर्ति करने वाले थोक व्यापारी चार शहरों कोटद्वार, रामनगर, हल्द्वानी और ऋषिकेश में केंद्रित है ।यह सिर्फ संयोग नहीं है कि 1990 के बाद जिन चारों मंडियों में थोक कारोबार करने वालों की समृद्धि कई सौ गुने की वृद्धि हुई है । यह वही समय है जब स्वास्थ्य विभाग ने मिलावटखोरों के आगे हथियार डालकर दोस्ती का हाथ मिला लिया । इसी दौर में मिलावटखोरों से मिलने वाला चंदा सभी राजनीतिक दलों के चुनावी अभियान का बड़ा हिस्सा बन गया । यही कारण है कि प्रदेश में सरकारें बदलने के बावजूद मिलावटखोरों से सरकार की दोस्ती कायम रहती है । मिलावटखोरों को सरकारी संरक्षण का ही नतीजा है कि 1990 के बाद स्वास्थ्य विभाग में एक भी खाद्य निरीक्षक की भर्ती नहीं की गई । उल्टे उनके बचे-खुचे खाद्य निरीक्षकों के क्रिया-कलापों की निगरानी की व्यवस्था भी खत्म कर दी गई । विभाग ने नमूने एकत्र करने का कोई लक्ष्य ही तय नहीं किए हैं । अरबों रुपये भवन निर्माण पर खर्च करने वाले स्वास्थ्य विभाग नौ साल में महज कुछ लाख रुपये में बनने वाली एक प्रयोगशाला बनाने की जहमत नहीं उठाई है । अब जाकर ताजमहल की तर्ज पर एक प्रयोगशाला रूद्रप्रयाग में बन पाई है । यूपी और हिमाचल की प्रयोगशालाओं के भरोसे मिलावट के नमूने जांचने का काम चलता रहा है । इनमें से भी नमूनों को बीच में बदलने का खेल विभाग कर्णधार करते रहे हैं । स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही का आलम यह है कि डीजी हैल्थ डाॅ. सीपी आर्य को जब मिलावट के बारे में पूछा गया तो उन्होंने जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते जवाबदेही की गेंद जिलों के मुख्य चिकित्सा अधिकारियों की ओर सरकार दी । उन्हें खाद्य निरीक्षकों को लेकर बुनियादी जानकारी तक नहीं थी । उधर, स्पैक्स संस्था का दावा है कि वह पिछले 10 साल से मिलावटखोरी के सर्वे की रिपोर्ट डीजी हैल्थ को भेजती रही है लेकिन उसकी रिपोर्ट पर कभी कोई नहीं हो पाई । इस बार वह मुख्यमंत्री डाॅ. रमेश पोखरियाल निशंक को रिपोर्ट की प्रति भेज रहे हैं ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें